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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड: ३
जैसा कि पूर्व-वणित है, वसुदेव के अनेक विवाह हुए थे। उसकी एक पत्नी का नाम मदनवेगा था। उससे उसके जो पुत्र उत्पन्न हुआ, उसका नाम अनाधृष्टि था । वह अपने मूल पैतृक नगर शौर्यपुर में निवास करता था। वह भी सत्यभामा की ओर आकृष्ट था। सत्यभामा को पाने की उत्कण्ठा लिये वह मथुरा की ओर रवाना हुआ। चलता-चलता गोकुल पहुँचा। रात्रि विश्राम हेतु वह नन्द के घर रुका। वहाँ उसने कृष्ण के चामत्कारिक कार्यों के सम्बन्ध में सुना । उसने मथुरा का मार्ग बताने हेतु कृष्ण को साथ लिया, अपने रथ में बिठा लिया।
गोकुल से मथुरा जाने वाला मार्ग बहुत संकड़ा था। मार्ग के दोनों ओर पेड़ थे। रथ उनसे भिड़ता-भिड़ता अटक-अटक कर निकल रहा था। आगे बरगद का एक विशाल वृक्ष आया। उसमें रथ का चक्का अटक गया। रथ आगे नहीं निकल सका। अनाधृष्टि ने बहुत प्रयास किया, किन्तु, वह निष्फल हुआ। अन्त में वह रथ से नीचे उतरा और वृक्ष को उखाड़ने का प्रयत्न करने लगा। वह कोई साधारण पेड़ नहीं था । वहुत भारी और स्थिर था। उखाड़ने में भरपूर जोर लगाते अनाधष्टि पसीने से तर हो गया, पर, पेड़ उखड नहीं सका। वह हताश हो गया।
यह देखकर कृष्ण रथ से नीचे उतरा । अनायास ही वृक्ष को उखाड़ डाला और उसे एक तरफ फेंक दिया। अनाधृष्टि कृष्ण का पराक्रम देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ, स्नेहाविष्ट हो, उसे गले लगाया।
बरगद के टूट जाने से रास्ता साफ हो गया। वे आगे बढे, मथुरा पहुँचे, सीधे उस सभा-मंडप में चले गये, जहाँ शार्ग-धनुष था। सभा-मंडप के मध्य में धनुष सन्निहित था। पास ही मंच पर सर्वांगसुन्दरी राजकुमारी सत्यभामा सभासीन थी। उसने कृष्ण की ओर देखा । उसके तेजस्वी, प्रभाविक, उत्कृष्ट व्यक्तित्व से वह बहुत प्रभावित हुई । मन-ही-मन पति के रूप में उसका वरण कर लिया।
मंडप में अनेक राजा उपस्थित थे। अनाध ष्टि धनुष की ओर चला । वह धनुष के पास पहुँचा ही नहीं था कि मार्ग में पैर फिसल जाने से गिर पड़ा। उसके गले का हार टूट गया, मुकुट भग्न हो गया, कानों के कुंडल नीचे गिर गये। उसकी दुर्गति देख सभी खिलखिलाकर हंस पड़े। अनाधृष्टि बड़ा लज्जित हुआ, क्षुब्ध हुआ।
कृष्ण ने जब इस उपहसनीय स्थिति को देखा तो वह उसे सह नहीं सका उसने तत्क्षण पुष्पमाला की ज्यों शाङ्ग धनुष को उठा लिया, उस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी। सभी राजा विस्मित हो उठे । सत्यभामा की मनः कामना पूर्ण हुई।
अनाधृष्टि और कृष्ण सब को आश्चर्यान्वित छोड़कर वहाँ से उठ चले । वे वसुदेव के निवास स्थान पर पहुँचे।
अनाधृष्टि ने कृष्ण को बाहर ही रथ पर छोड़ा और स्वयं भीतर गया । अपने पिता वसुदेव से बोला-तात ! जिस शाङ्ग धनुष को दूसरे राजा स्पर्श भी नहीं कर सके, मैंने उसे चढ़ा दिया है। कंस का भय
वसुदेव ने ज्यों ही यह सुना, उससे कहा - "तुम जल्दी से जल्दी मथुरा छोड़कर चले जाओ। यदि कंस को यह ज्ञात हो गया तो वह मारे बिना नहीं छोड़ेगा।
अनाधृष्टि यह सुनकर भय से काँप गया। वह उलटे पैर वापस लौटा, रथ पर आरूढ
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