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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-वासुदेव कृष्ण : घट जातक ५११ वसुदेव देवकी के विचार से सहमत हुआ, पर, वह बोला-“देवकी ! तुम ठीक कहती हो। शिशु की रक्षा हेतु मुझे ऐसा करना ही चाहिए, पर, तुम्ही बताओ, इस आधी रात के समय मैं शिशु को लेकर कहाँ जाऊँ?" देवकी-"स्वामिन् ! पास ही में वे दश गोकुल हैं, जो मेरे पिता ने विवाह-संस्कार के समय आपको भेंट किए थे। उनका अधिपति नन्द आपका सेवक है । उसके पास इस बच्चे को छोड़ आइए।" कृष्ण नन्द के घर वसुदेव ने नवजात शिशु को गोद में लिया। मूसलधार वर्षा हो रही थी। अंधेरी रात थी। वसुदेव हिम्मत कर निकल पड़ा। शिशू पुण्यात्मा जीव था; अत: सन्निकटवर्ती देवों ने उस पर छत्र तान दिया। वासुदेव का अवतरण जान फूलों की वर्षा की तथा आठ दीपकों द्वारा मार्ग को प्रकाशमय बनाया। यों वसुदेव किसी भी कठिनाई और असुविधा के बिना नगर के दरवाजे के पास गया। भयावह अन्धकारपूर्ण रजनी में दीपकों के आलोक से विभासित मार्ग पर एक पुरुष को आगे बढ़ते देखकर पंजर-बद्ध राजा उग्रसेन विस्मित हो उठा । सहसा उसके मुंह से निकला- यह कौन है ? क्या है ?" . वसुदेव ने अपनी गोद में छिपाए शिशु को दिखलाते हुए कहा ... "यह कंस का विनाशक है, शत्रु है । आप इस तथ्य को सर्वथा गोपनीय रखिए।" उग्रसेन ने वसुदेव के कथन की स्वीकृति में अपना मस्तक हिला दिया। वसुदेव की सहायता हेतु जो देव साथ चल रहे थे, उन्होंने नगर-द्वार उद्घाटित कर दिया, केवल उतना-सा, जिससे वसुदेव आसानी से बाहर निकल सके। वसुदेव बाहर निकला, नन्द के घर पहुंचा। उसे सारी स्थिति से अवगत कराया। पालन-पोषण हेतु पुत्र को उसे सौंपा। सारी स्थिति अत्यन्त गोपनीय रखने की हिदायत की। नन्द ने शिशु को लिया। अपनी नव-प्रसूता कन्या को अपनी पत्नी यशोदा की गोद से उठाया, उसके स्थान पर देवकी के पुत्र को सुला दिया। कन्या वसुदेव को सौंप दी। वसुदेव-"नन्द ! तुम्हारा यह उपकार कभी भूल नहीं सकूँगा।" नन्द-"अपने स्वामी के पुत्र के प्राणों की रक्षा करना मेरा अपना कर्त्तव्य है । इसमें उपकार जैसी कोई बात नहीं हैं। . कन्या को अपनी गोद में छिपाए वसुदेव वापस अपने स्थान पर लौट आया। देवकी के कक्ष में गया । उसे कन्या दी । स्वयं उस कक्ष से निकल आया। इतने में पहरेदारों की निद्रा भग्न हुई । देवकी ने क्या प्रसूत किया है, यह जानने वे भीतर आये। उन्होंने देखा-देवकी की बगल में एक नव प्रसूता कन्या लेटी है। प्रहरियों ने उसे उठाया और कंस को ला सौंपा। कंस ने देखा-सातवाँ प्रसव कन्या के रूप में हुआ है। उसने मन-ही-मन विचारा, मुनि की भविष्य-वाणी खरी नहीं उतरी। यह बेचारी कन्या मेरा क्या बिगाड़ कर पायेगी? इसे मारने से क्या लाभ होगा ! यह सोच उसने कन्या की नाक काट डाली। उसे वापस देवकी को सौंप दिया। उघर गोकुल में वसुदेव-देवकी का पुत्र बढ़ने लगा। उसकी देह श्याम आ मामय थी। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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