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________________ ५१० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ प्रभाव से सुलसा को तथा देवकी को एक ही समय ऋतुमती करता । जब दोनों प्रसव करतीं तो वह गुप्त रूप में शिशुओं को बदल देता । देवकी के जीवित शिशु को उठाकर सुलसा के पास पहुँचा देता और सुलसा के मृत शिशु को देवकी के यहाँ रख देता । कंस को 'क्रूरता इस प्रकार देवकी के जीवित पुत्र सुलसा के अंक में होते और सुलसा के मृत पुत्र देवकी के यहाँ पहुँचे क्रमशः कंस की क्रूरता के शिकार होते । ज्यों ही कंस को पता चलता, प्रसव हुआ है, वह शिशु को छीन लेता और शिला पर पछाड़ डालता, समझता शिशु मर गया, जबकि वस्तुतः शिशु मरा हुआ ही होता । छः शिशुओं के जन्म तक यह क्रम चलता रहा । मृतवत्सा सुलसा का घर देवकी की कोख से उत्पन्न अनीकयशा अनन्तसेन, अजितसेन, निहितारि, देवयशा तथा शत्रुसेन - इन छः पुत्रों की किलकारियों, क्रीड़ाओं से गुंजित रहता । देवकी पुत्रों को जन्म देकर भी अपने मृतवत्सा मानती, व्यथित रहती । देवकी का स्वप्न एक रात को देवकी ने स्वप्न देखा । उसे सिंह, अग्नि, हाथी, ध्वजा, विमान तथा कमलों से परिपूर्ण सरोवर दृष्टिगोचर हुआ। उसी समय महाशुक्र नामक स्वर्ग से मुनि गंगदत्त का जीव अपना देवायुष्य पूर्णकर उसके गर्भ में आया । गर्भ क्रमशः वृद्धि पाने लगा । कृष्ण का जन्म भाद्रपुर मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी थी । आधी रात का समय था । देवकी ने एक पुत्र को जन्म दिया । नव जात शिशु श्याम द्युतिमय था । उसका मुख दिव्य आभा से आलोकित था। जिस समय शिशु का जन्म हुआ, रक्षार्थ सन्निकटवर्ती देवों ने प्रहरियों को निद्रा-निमग्न कर दिया। देवकी ने अपने पति वसुदेव को बुलाया और उससे कहा - " स्वामिन् ! मेरे छः पुत्रों की कंस ने हत्या कर दी है। अब किसी तरह इस सातवें पुत्र की तो रक्षा करें।" वसुदेव ने निराशापूर्ण स्वर में कहा- - "प्रिये ! मैं वचन बद्ध हूँ । मुझे भी अत्यधिक दुःख है, किन्तु, क्या करूँ ? 1 'देवकी मेधाविनी थी । उसकी बुद्धि म्फुरित हुई। उसने कहा - "स्वामिन् ! साधु के साथ साधुता का और मायावी - छली, कपटी के साथ मायापूर्ण व्यवहार करना नीति-संगत है । जब कंस आपके शिशुओं की हत्या का दुरभिप्रेत लिए छल कल कर सकता है तो एक पुत्र को बचाने के लिए क्या आप वैसा नहीं कर सकते ? कंस ने अधम उद्देश्य से वैसा किया, आप तो उत्तम उद्देश्य से वैसा करते हैं ।"" वसुदेव देवकी के कथन पर गंभीरता से चिन्तन करने लगा। उसे चिन्ता निमग्न देखकर देवकी की आकुलता बढ़ी । वह कहने लगी- “प्राणेश्वर यह चिन्तन- विमर्श का समय नहीं है । एक प्राणी के रक्षण हेतु यदि आप माया का अवलम्बन करें तो मेरी दृष्टि में न वह अनुचित और न अनीति हो । शीघ्रता कीजिए। हमारे भाग्य से प्रहरी नींद में सोये पड़े हैं। समय का लाभ लीजिए। बीता हुआ समय फिर नहीं आता । निकल जाइए।" आप शिशु को लेकर Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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