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________________ ५०८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ क्यों लौटते हो ? आज आनन्दोत्सव का दिन है। तुम भी इसमें सम्मिलित हो जाओ । आओ, मैं भी नाचूं, तुम भी नाचो, मैं भी गाऊँ, तुम भी गाओ ।" मदहोश जीवयशा का कुत्सित व्यवहार मदिरा के नशे में पागल बनी जीवयशा मुनि अतिमुक्तक के सम्मुख आकर खड़ी हो गई, उनका रास्ता रोक लिया। स्पृहाजयी, आकाङ्क्षाजयी मुनि रुक गये । जीवयुशा ने फिर कहा - "अरे देवर ! तुम तो वोलते ही नहीं, कुछ तो बोलो। यह मदिरा है, जीवन रस है, कुछ तो पीओ, बड़ा आनन्द आयेगा ।" यों कहकर रानी ने मद्य चषक मुनि की ओर आगे बढ़ाया। मुनि मौन था । रानी की इन अशालीन एवं अभद्र प्रवृत्तियों को देख रहे थे, सोच रहे थे। रानी का उन्माद बढ़ता जा रहा था । वह कुत्सित चेष्टाओं पर उतारू होने लगी । नि:स्पृह, निराकाङ्क्ष मुनि ने बड़ा प्रयास किया कि वे किसी प्रकार जीवयशा के चंगुल से निकल भागें । मुनि का शरीर तप से कृश एवं क्षीण था। रानी पौष्टिक आहार सेवन से परिपुष्ट तथा मद्य के उन्माद से अनियन्त्रय थी । उसके चंगुल से छूट पाना मुनि के लिए अशक्य था । वे वहाँ से नहीं निकल सके । अतिमुक्तक द्वारा भविष्यवाणी मुनि अतिमुक्तक कुछ गंभीर हो गये । सहसा उनके मुख से निकल पड़ा - "जीवयशा ! जिसे लक्षित कर यह उत्सव समायोजित है, लज्जा, शालीनता आदि का परित्यागकर तुम मदोद्धत हो, उसका सातवाँ पुत्र तेरे पति का संहारक होगा ।" श्रमण अतिमुक्तक के ये शब्द ज्यों ही जीवयशा के कानों में पड़े, उसे वस्त्र से कठोर प्रतीत हुए। क्षणभर में मंदिरा की खुमारी उतर गई । वह अत्यन्त भयाक्रान्त हो गई । मुनि का रास्ता छोड़ दिया, जिसे वह रोके खड़ी थी । क्षण भर के लिए वह चेतनाशून्य-सी हो गई । श्रमण अतिमुक्तक अपनी धीर, गंभीर गति से वहां से चल पड़े । कंस द्वारा वसुदेव से देवकी के सात शिशुओं की मांग मुनि के चले जाने के पश्चात् जीवयशा में कुछ चेतना लौटी। पति के नाश की भीषण कल्पना उसे भीतर ही भीतर कचोटने लगी। उसने तत्क्षण अपने पति को एकान्त बुलाया और मुनि अतिमुक्तक की भविष्यवाणी से उसे अवगत कराया । में कंस यह सुनकर चिन्तातुर हो गया । कुछ देर मन में सोचता रहा। फिर उठकर वसुदेव के पास गया । वसुदेव ने कंस का चिन्ताकुल मुख देखा । सस्नेह उससे कहा— "कंस ! आज तो आमोद-प्रमोद का दिन है । सब हँसी-खुशी में मशगूल हैं । तुम क्यों चिन्तित हो ? मुझे बताओ । मैं तुम्हारी चिन्ता दूर करूँगा।" बद्ध होकर कंस ने कहा - "कुमार ! आपके मुझ पर बहुत उपकार हैं । आपने ही मुझे शस्त्र विद्या, अस्त्र विद्या आदि की शिक्षा दी, सुयोग्य बनाया । आप ही के कारण मुझे महाराज जरासन्ध की पुत्री जीवयशा पत्नी के रूप में प्राप्त हो सकी। आपके उपकारों के भार से मैं दबा हूँ, किन्तु, अब भी मुझे परितोष नहीं है, कुछ और चाहता हूँ। मेरा एक उपकार और कीजिए । " Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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