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________________ तैस्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग – वासदेव कृष्ण : घट जातक ५०७ ने वसुदेव को संबोधित कर कहा -- "आप सदैव मुझे अपने स्नेह द्वारा अनुगृहीत करते रहे हैं। मेरा एक विनम्र अनुरोध है । आशा है, स्वीकार करेंगे ।" वसुदेव - "कहो, क्या अनुरोध है ? कंस - "मृतिकावती नगरी का राजा देवक है। उससे मेरा पितृव्य-सम्बन्ध है । उसकी पुत्री, मेरी पितृव्यजा भगिनी देवकी के साथ विवाह-सम्बन्ध स्वीकार कर अनुगृहीत करें ।" कंस का विशेष आग्रह देख बसुदेव ने अपनी स्वीकृति दे दी । कंस बड़ा हर्षित हुआ । वसुदेव को साथ लिए कंस मृतिकावती गया। राजा देवक ने उनका बड़ा सम्मान-सत्कार किया । कंस ने राजा देवक से वसुदेव का परिचय कराया और अपने द्वारा उसे यहाँ लाये जाने का प्रयोजन बताया। देवक ने एकाएक इस सम्बन्ध के लिए उत्सुकता नहीं दिखलाई। वसुदेव और कंस अपने शिविर में लौट आये । देवक अन्तःपुर में गया। यह प्रसंग चला । तब देवक ने देखा - रानी देवी और पुत्री देवकी को यह सम्बन्ध विशेष रूप से पसंद है । वस्तुतः देवकी को वसुदेव के सौम्य, सरस, एवं सबल व्यक्तित्व का परिचय पहले ही प्राप्त हो चुका था । वह उसकी ओर आकृष्ट थी । राजा देवकने वसुदेव और कंस को बुलाने हेतु अपने अमात्य को भेजा । वसुदेव और कंस आये । राजा देवक ने अपने निर्णय से उन्हें अवगत कराते हुए कहा - " मैं अपनी राजकुमारी देवकी का पाणिग्रहण वसुदेव के साथ करने में प्रसन्न हूँ, मेरे परिजनवृन्द प्रसन्न हैं।" उत्तम मुहूर्त एवं शुभ वेला में वसुदेव तथा देवकी का विवाह हो गया । राजा देवक ने पाणिग्रहण संस्कार के अवसर पर वसुदेव को विपुल वैभव और साथ-ही-साथ दश गोकुलों के अधिनायक नन्द को भी धेनुवृन्द के साथ उपहृत किया । राजा देवक के यहाँ से प्रस्थान कर कंस, वसुदेव, देवकी तथा नन्द एवं उनके परिजनवृन्द मथुरा आये । इस सौभाग्यमय अवसर के उपलक्ष्य में मथुरा में बहुत बड़ा उत्सव आयोजित किया गया । कंस इस बात से अत्यन्त हर्षित था कि उसी के प्रस्ताव पर वसुदेव ने यह सम्बन्ध स्वीकार किया तथा राजा देवक के यहाँ भी उसका प्रयत्न सफल हुआ । कंस के आदेश से मथुरा को अत्यन्त सुन्दर रूप में सजाया गया। नगर में सर्वत्र हर्ष, उत्साह, उल्लास, परिव्याप्त था। नगर के सभी नर-नारी खुशी में झूम रहे थे। उनकी मुखमुद्रा बड़ी प्रमुदित थी । उनके हृदय में प्रसन्नता मानो समा नहीं रही थी । अतिमुक्तक मुनि का भिक्षार्थ आगमन अन्तःपुर में नृत्य और संगीत के दौर चल रहे थे। रानी जीवयशा राग-रंग में मस्त थी । मदिरा के नशे की खुमारी में उसके पैर लड़खड़ा रहे थे। उसके मद-घूर्णित नेत्र खुल नहीं रहे थे । उसी समय एक प्रसंग घटित हुआ, राजा उग्रसेन के संसार पक्षीय पुत्र तथा कंस के अनुज अतिमुक्तक मुनि पारणे हेतु भिक्षार्थ आये । जब उन्होंने जीवयशा की यह स्थिति देखी तो वे वापस लौटने लगे। मदोन्मत्ता जीवयशा ने उन्हें रोकते हुए कहा - " देवर ! वापस Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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