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तैस्व : आचार : कथानुयोग ]
कथानुयोग - वासुदेव कृष्ण : घट जातक
वसुदेव ने मुसकराते हुए कहा - "यों नहीं ।"
नृपतिगण वसुदेव की व्यंग्यात्मक उक्ति पर आश्चर्यान्वित थे । उन्होंने कहा - " तो
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कैसे ?"
वसुदेव--"तुम अकेलों के साथ युद्ध करने में आनन्द नहीं आयेगा | अपनी-अपनी सेनाएँ भी ले आओ ताकि कुछ समय युद्ध चालू रह सके ।"
जरासन्ध ने इस पर कहा - "अच्छा, इतना गरूर ! राजाओ ! अपनी-अपनी सेनाओं के साथ मैदान में डट जाओ ।"
जरासन्ध द्वारा प्रेरित समुद्रविजय आदि सभी समागत राजा अपनी-अपनी सेनाओं के साथ मैदान में आ गये। राजा रुधिर भी अपनी सेना के साथ उनका सामना करने मैदान में आ डटा ।
विद्याधर विद्युद्वेग का पुत्र विद्याधर दधिमुख, जो वसुदेव द्वारा उपकृत था, जिसकी बहिन मदनवेगा वसुदेव को ब्याही थी, वसुदेव के लिए रथ लेकर उपस्थित हुआ वसुदेव रथ पर आरूढ़ हुआ । विद्याधर दधिमुख ने स्वयं सारथि का कार्य सम्भाला ।
वसुदेव ने थोड़े ही समय में मुख्य-मुख्य राजाओं को पराजित कर डाला। तब जरासन्ध ने ( वसुदेव के ही ज्येष्ठ बन्धु) शौर्यपुर नरेश समुद्रविजय को पटह-वादक का सामना करने को प्रेरित किया। समुद्रविजय ने कहा- "महाराज ! परस्त्री की मुझे कोई कामना नहीं हैं, पर आपकी भावना को आदर देते हुए इस शक्तिशाली पटह-वादक का मैं अवश्य मुकाबला करूंगा ।"
यों कहकर वायुवेग से आगे बढ़कर समुद्रविजय ने पटह-वादक पर हमला बोल दिया। दो मदोन्मत्त हाथियों की ज्यों दोनों भाई परस्पर भिड़ गये। विविध रूप में युद्ध चलने लगा, किन्तु, कोई किसी को पराजित नहीं कर पाया। समुद्रविजय विचारने लगा - यह कैसा योद्धा है, कौन है, जो नियन्त्रण में आता ही नहीं ?
वसुदेव ने गौर से समुद्रयिजय की ओर दृष्टिपात किया । उसके मुख पर उभरी चिन्ता - रेखा को पढ़ लिया और उसे पहचानते देर नहीं लगी कि वह उसका अग्रज राजा समुद्रविजय है । अपने अग्रज के प्रति उसके मन में अनन्य श्रद्धा थी । उसने उसके पैरों में एक वाण छोड़ा, जिस पर यह अंकित था कि छद्मवेश में निःसृत आपका अनुज वसुदेव आपको प्रणाम करता है ।
समुद्रविजय ने ज्योंही बाण पर अंकित यह पंक्ति पढ़ी, वह यह जानकर कि जिस परम प्रिय भाई को मृत समझकर, जिसकी अन्त्येष्टि तक कर दी गई थी, वह (मेरा वह भाई) जीवित है, हर्ष-विभोर हो गया। उसकी प्रसन्ता की सीमा नहीं रही । उसकी आँखों आनन्दा छलक पड़े। उसने अपने अस्त्र-शस्त्र वहीं डाले । वह अपने चिरविरहित भाई को गले लगाने दौड़ पड़ा । वसुदेव भी अस्त्र-शस्त्र रथ में ही छोड़ अपने अग्रज को प्रणाम करने को आगे बढ़ा, उसके चरणों में गिर पड़ा। समुद्रविजय ने अत्यन्त वात्सल्य के साथ उसे उठाकर गले लगाया । विशुद्ध भ्रातृ स्नेह का मानो निर्भर फूट पड़ा ।
सारा वातावरण बदल गया । युद्ध में काठौर्य
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सभी हक्के-बक्के रह गये । क्षणभर
का स्थान स्नेह एवं सौमनस्य ने ले लिया ।
यह अतर्कित, अप्रत्याशित दृश्य देखकर जरासन्ध उनके समीप आया । वसुदेव को देखकर वह हर्षित हुआ । उसका क्रोध शान्त हो गया ।
बड़े आनन्दोत्साह पूर्वक रोहिणी के साथ वसुदेव का विवाह संपन्न हुआ ।
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