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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
स्वयंवर में महाराज जरासन्ध आदि अनेक भूपति उपस्थित थे । समुद्रविजय तथा उसके भाई भी स्वयंवर में आये थे ।
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रोहिणी साक्षात् शशिप्रिया रोहिणी ही थी । वह अप्रतिम सुन्दरी थी । हाथ में वरमाला लिये अपनी सहेलियों के साथ उसने स्वयंवर मंडप में प्रवेश किया। सभी राजा उसके रूप-सौन्दर्य से चकित हो गये। उनमें से प्रत्येक यही कामना लिये था कि रोहिणी उसका वरण करे। रोहिणी उन पर दृष्टिपात करती हुई आगे बढ़ती गई । उनमें से कोई भी राजा उसे रणीय नहीं लगा ।
वसुदेव पटह-वादकों के वेश में था, किन्तु, उसके व्यक्तित्व की छटा निराली थी, उसके ढोल बजाने का ढंग अद्भुत था । उसने विशिष्ट ताल तथा लय के माध्यम से ढोल की ध्वनि के रूप में ये शब्द निकाले - " मृग-सदृश सुन्दर नयनों वाली राजकुमारी ! हरिणी की ज्यों इधर-उधर मत घूमो । यहाँ आओ । मैं तुम्हारे लिए योग्य वर हूँ ।"
राजकुमारी भी कलाविद् थी । ज्योंही उसके कानों में ये शब्द पड़े, वह सारी स्थिति भांप गई । वह आगे बढ़ी, पटह-वादक के निकट पहुँची। पटह-वादक की देह-द्युति, मुखकान्ति अनूठी भी । उसका व्यक्तित्व ओज, पराक्रम एवं पौरुष का परिचायक था । राजकुमारी ने वरमाला उसके गले में डाल दी ।
इतने क्षत्रिय राजाओं की विद्यमानता में एक पटह-वादक के गले में वरमाला डाला जाना अपने आपमें एक अनुपम आश्चर्य था । नृपतिगण यह देखकर स्तंभित रह गये । तरहतरह की बातें करने लगे । उनका अभिमत था, एक पटह-वादक इतने क्षत्रिय राजाओं के बीच से राजकुमारी रोहिणी को ले जाए, यह सभी समागत राजाओं का अपमान है; इसलिए उचित यही होगा, इस पटह-वादक से रोहिणी को छीन लिया जाए ।
रोहिणी का पिता राजा रुधिर बोला- “ नृपतिगण ! स्वयंवर की यह विधि परं परा है, मर्यादा है— कन्या जिसे चाहे, उसके गले में वरमाला डालने की, उसका वरण करने की अधिकारिणी । उस द्वारा जिसके गले में वरमाला पड़ गई, निश्चितरूपेण वह उसका पति हो गया । आप सब इस नियम और विधिक्रम को जानते हैं । कन्या ने अपने अधिकार का प्रयोग किया, आप लोग क्यों वृथा रुष्ट हो रहे हैं ?
राजाओं ने कहा- "यह हमारा अपमान है । हम इसे नहीं सह सकते । हम राजकुमारी को नहीं ले जाने देंगे ।"
न्यायविज्ञ विदुर वहाँ उपस्थित था । उसने क्रोधाविष्ट राजाओं को शान्त करने के अभिप्राय से कहा - "आप लोगों का कथन ठीक भी मान लिया जाए, तो भी यह तो आवश्यक है कि इस पुरुष के कुल-शील आदि का परिचय प्राप्त किया जाए ।"
इस नये उभरे वातावरण को देखकर पटह-वादक के वेश में छिपे वसुदेव का शौर्य जाग उठा । वह बोला - " अपने कुल एवं शील का परिचय देने हेतु मेरी भुजाएँ स्फुरित हो रही हैं । मेरी पत्नी रोहिणी को हथियाने कोई बहादुर आगे तो आए, चीरकर दो भाग कर दूंगा ।"
भरता-अधिपति- - अर्ध भरतक्षेत्र का स्वामी प्रति वासुदेव जरासन्ध यह सुनकर क्रोध से तमतमा उठा। उसने कहा - "इस क्षुद्र पटह-वादक को राज कन्या पाकर भी सन्तोष नहीं हुआ । यह अहंकार से उन्मत्त हो रहा है । पहले तो राजा रुधिर ने हमारा तिरस्कार किया और अब यह हमें तिरस्कृत कर रहा है। दोनों को ठिकाने लगा दो ।" यह सुनते ही राजा वसुदेव पर झपटने को सन्नद्ध हुए ।
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