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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-वासुदेव कृष्ण : घट जातक ५०३
राजा समुद्र विजय का प्रहरी गण को यह गुप्त आदेश था, वे ध्यान रखते रहें, कुमार अकेला बाहर कहीं नहीं जाए। वसुदेव को यह ज्ञात हो गया था; अतः प्रकट रूप में वैसा प्रयत्न नहीं किया।
महल से प्रयाण
वसुदेव विविध विद्या निष्णात था। उसके पास एक ऐसी गुटिका थी, जिसके प्रयोग द्वारा रूप-परिवर्तन किया जा सकता था। वसुदेव ने उसके द्वारा रूप-परिवर्तन किया। वह रात के समय महल से निकल पड़ा । महल के परिचारकों में से कोई एक होगा, पहरेदारों ने यह सोचकर कोई रोकटोक नहीं की।
नगर से बाहर निकलकर वह श्मशान में गया। वहाँ एक लावारिस लाश पड़ी थी। उसे चिता में डाल दिया। वैसा कर उसने एक पत्र लिखा- 'लोगों ने मेरे गुण को अवगुण के रूप में देखा, प्रकट किया। मेरे ज्येष्ठ बन्धु ने भी उस पर विश्वास कर लिया। इस लोकापवाद से मृत्यु कहीं अच्छी है, यह सोचकर मैं जीवित चिता में प्रवेश करता हूँ। सब लोग मेरी ज्ञात-अज्ञात भूलों के लिए मुझे क्षमा करें।"
वह पत्र उसने श्मशान के समीप गड़े एक खंभे पर बाँध दिया और स्वयं ब्राह्मण का वेश बनाकर आगे चला गया।
प्रात काल जब कुमार वसुदेव महल में नहीं मिला तो सर्वत्र खलबली मच गई। उसे खोजने हेतु चारों ओर राजकर्मचारी भेजे गये। कुछ कर्मचारी उसके पैरों के निशानों के सहारे श्मशान में पहुँचे। वहाँ खंभे पर बँधे पत्र को ज्योंही उन्होंने पढ़ा, वे स्तब्ध रह गये। पास ही चिता में अधजली लाश देखी। उससे उन्हें विश्वास हो गया कि वसुदेव ने वास्तव में अग्नि में प्रवेश कर लिया है।
ज्योंही यह समाचार राजमहल में पहुँचा, सब शोकाभिभूत हो गये। महल में हाहाकार मचा गया । समग्र यादव-परिवार में विषाद छा गया। यों कुमार वसुदेव को मृत समझ कर पारिवारिक जनों ने उसकी औलदेहिक क्रियाएँ संपादित की।
पर्यटन
वसुदेव ने भी अपने यात्रा-क्रम के मध्य लोगों से-श्रुतिपरंपया यह समाचार सुना। वह उस ओर से निश्चिन्त हो गया तथा आगे बढ़ता गया।
वसुदेव अत्यन्त सुन्दर था, कला प्रवीण था, विद्या-निष्णात था, रण-कुशल था। वह पर्यटन का शौकीन था। दीर्घकाल तक घूमता रहा । उस बीच उसका अनेक सन्दरियों के साथ पाणि-ग्रहण हुआ, उसने नई-नई विद्याएँ, नये-नये अनुभव अजित किये।
रोहिणी के साथ विवाह
एक बार वसुदेव कहीं जा रहा था। मार्ग में एक देव मिला । उसने कहा"वसुदेव ! राजा रुधिर की पुत्री, परम रूपवती रोहिणी का अरिष्टपुर में स्वयंवर आयोजित है। मैं तुम्हें दैविक शक्ति द्वारा वहाँ पहुँचा देता हूँ। तुम वहाँ पटह-वादकों-ढोल बजाने वालों के साथ पटह-ढोल बजाना।"
वसुदेव के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही उस देव ने तत्क्षण उसे स्वयंवर में पहुँचा दिया और उसके गले में एक पटह - ढोल लटका दिया । यौं वसुदेव पटह-वादकों में शामिल हो गया।
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