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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड: ३
राजा समुद्रविजय और वसुदेव कुछ दिन महाराज जरासन्ध का सम्मानपूर्ण अतिथ्य प्राप्त कर शौर्यपुर लौट आये ।
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कुमार वसुदेव का अनुपम सौन्दर्य
कुमार वसुदेव अद्भुत रूप-संपन्न तथा अनुपम सौन्दर्यशाली था । वह जब भी बाहर निकलता, स्त्रियाँ मन्त्र-मुग्ध की ज्यों उसकी ओर आकृष्ट हो जातीं । तरुणियाँ और किशोरियां ही नहीं, प्रौढाएं तथा वृद्धाएं तक उसे देख कामाभिभूत हो उठती। किन्तु, वसुदेव इन सबसे निर्लिप्त तथा अनाकृष्ट रहता । वह अपनी धुन का व्यक्ति था । उसका मस्ती का जीवन था | मनोरंजन, मनोविनोद हेतु इधर-उधर घूमता, अपने महल में लौट आता ।
कलाराधना के मिष महल में नियन्त्रित
प्रजाजनों को यह स्थिति असह्य प्रतीत होने लगी । कतिपय सम्भ्रान्त जन राजा समुद्रविजय के पास आये और सारी स्थिति से उन्हें अवगत कराते हुए निवेदन किया"राजन् ! इससे मर्यादा का लंघन होता है, शालीनता क्षीण होती है।"
राजा ने उनको आश्वस्त किया- "आप लोग निश्चिन्त रहें, मैं इसकी समीचीन व्यवस्था कर दूंगा ।"
राजा सोचने लगा-रूप-सौन्दर्य पुण्य प्रसूत है, उत्तम गुण है, किन्तु, अतिशय रूपवत्ता के कारण जब लोक-मर्यादा भग्न होने लगे तो उस पर नियन्त्रण या बन्धन वाञ्छित है ।
राजा इस समस्या का बड़ी बुद्धिमत्ता के साथ समाधान करना चाहता था, जिससे कुमार वसुदेव को भी अन्यथा प्रतीत न हो और कार्य भी हो जाए ।
एक दिन राजा ने कुमार वसुदेव को अपने पास बिठाया तथा कहा- "कुमार ! तुम दिन भर घूमते रहते हो। इससे तुम्हारी देह-द्युति क्षीण हुई जा रही है। बड़े परिश्रान्त एवं क्लान्त लगते हो। ऐसा मत किया करो ।"
वसुदेव---“राजन् ! महल में बैठा-बैठा क्या करूं ? खब जाता हूँ । बिना किसी कार्य के निठल्ले बैठे रहने में मन भी नहीं लगता । आप कुछ कार्य बतलाते नहीं ।"
समुद्र विजय - " वसुदेव ! कला एवं विद्या की आराधना करो । जो कलाएँ, विद्याएँ तुमने नहीं सीखी हैं, उन्हें सीखो। जो कलाएँ, विद्याएँ तुम सीखे हुए हो, उनका पुनः पुनः अभ्यास करो | अभ्यास के बिना कला नहीं टिकती विद्या विस्मृत हो जाती है ।
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वसुदेव—“राजन् ! बहुत अच्छा, अब मैं ऐसा ही करूंगा । बाहर नहीं घूमूंगा ।"
बड़े भाई राजा समुद्रविजय की इच्छानुसार कुमार वसुदेव कलाराधना में निमग्न हो गया । उसका महल संगीत, नृत्य, काव्य आदि कलाओं के परिशीलन का भव्य केन्द्र बन
गया ।
कुछ समय तक तो यह सुन्दर क्रम चलता रहा, पर, उसमें व्यवधान आया । मनुष्य का मन बड़ा चंचल है । अतएव उसकी चिन्तन धारा भी चंचल होती है । कुछ ऐसे प्रसंग उपस्थित हुए, जिससे वसुदेव को ऐसा अनुभव होने लगा कि उसका जीवन तो एक प्रकार से बन्दी का सा जीवन है । यह विचार आते ही वह छटपटा उठा । उसे राजप्रासाद कारागृहसा प्रतीत होने लगा। किसी भी प्रकार से वह वहाँ से निकल भागे, ऐसा प्रयास करने
लगा ।
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