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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
कंस और जीवयशा का विवाह
समुद्रविजय एवं वसुदेव कंस तथा बन्दी सिंहरथ को साथ लिए जरासन्ध के यहां राजगृह पहुँचे । सिंहरथ को बन्दी के रूप में प्राप्त कर जरासन्ध बहुत प्रसन्न हुआ । उसने जीवयशा के विवाह का प्रसंग उपस्थित किया तो वसुदेव ने कंस के शौर्य और पराक्रम की प्रशंसा करते हुए बताया कि राजा सिंहरथ को बन्दी बनाने वाला यही है; अत: राजकुमारी जीवयशा को प्राप्त करने का वास्तव में यही अधिकारी है ।
जब कंस ने अपने स्वामी वसुदेव के ये उद्गार सुने तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ कि वसुदेव कितने महान् एवं गुणग्राही हैं । वह वसुदेव के प्रति कृतज्ञता से भर गया ।
कंस के वंश के सम्बन्ध में समुद्रविजय ने सारा वृत्तान्त महाराज जरासन्ध के समक्ष प्रस्तुत करते हुए बताया कि वह यदुवंशीय मथुराधिपति राजा उग्रसेन का पुत्र है । जरासन्ध यह जानकर बड़ा परितुष्ट हुआ । उसने राजकुमारी जीवयशा का विवाह कंस के साथ कर दिया ।
कथानुयोग --- वासुदेव कृष्ण : घट जातक **
कंस द्वारा मथुरा की प्राप्ति : अतिमुक्तक दारा दीक्षा
कंस अपने जन्म, वंश आदि का परिचय ज्ञात कर मन-ही-मन अपने माता-पिता के प्रति आगबबूला हो गया । उसने प्रकट रूप में तो कुछ नहीं कहा, किन्तु अपने मन में उसने अपने माता-पिता से प्रतिशोध लेने का, उन्हें पीड़ित करने का निश्चय किया ।
महाराज जरासन्ध ने कंस से कहामांग लो।"
"जो तुम चाहो, वैसा एक समृद्ध नगर भी
कंस चिन्ता-निमग्न था, गंभीर था । यह देखकर जरासन्ध बोला - "संकोच करने की कोई बात नहीं है, जो तुम्हें पसंद हो, वह नगर मांग लो ।"
कंस -- "महाराज ! मुझे मथुरा नगरी का राज्य दीजिए ।"
जरासन्ध ने मुसकराते हुए कहा- "मथुरा का राज्य तो तुम्हारा है ही । तुम्हारा पिता मथुरा का शासक है । मथुरा का राज्य तो तुम्हें पैतृक दाय के रूप में प्राप्त होगा ही कोई अन्य नगर और मांगो।"
कंस – “मैं मथुरा का राज्य पैतृक उत्तराधिकार के रूप में न चाहकर, अहने पराक्रम के पुरस्कार के रूप में चाहता हूं, कृपया दीजिए ।"
जरासन्ध ने कंस की मांग स्वीकार की । उसे बहुत बड़ी सेना भी दे दी। कंस जरासन्ध से विदा ले, अपनी सेना साथ लिये राजगृह से मथुरा की और रवाना हुआ । यथा समय मथुरा पहुंचा । वह भीतर ही भीतर उग्र क्रोध से जल रहा था । उसने मथुरा पर आक्रमण किया । अपने पिता उग्रसेन को बन्दी बना लिया और उसे एक पिंजड़े में बन्द करवा दिया । उग्रसेन के अतिमुक्तक आदि और भी कई पुत्र थे । इस घटना से अतिमुक्तक के मन पर बड़ी चोट पहुंची। उसे संसार से विरक्ति हो गई। उसने दीक्षा ले ली ।
कंस ने अपना लालन-पालन करने वाले रस व्यवसायी सुभद्र को बुलाया । उसे बहुत सम्मानित सत्कृत और पुरस्कृत किया ।
कंस की माता धारिणी ने बार-बार उससे अभ्यर्थना की कि सारा अपराध मेरा है, पिता का कोई अपराध नहीं हैं, तुम उन्हें मुक्त कर दो, कष्ट मत दो । कंस ने माता के अनुरोध पर कुछ भी गौर नहीं किया ।
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