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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-वासुदेव कृष्ण : घटजातक ४६६ कंस वसुदेव की सेवा में आकर प्रसन्न हुआ। उसे वहां अपनी अभिरुचि के अनुकूल वातावरण प्राप्त हुआ। वसुदेव की देखरेख में वह युद्ध-विद्या, अस्त्र-शस्त्र चलाने की कला आदि सीखने लगा। वसुदेव उसे अन्यान्य कलाओं तथा विद्याओं का भी शिक्षण दिलवाता रहा। इस प्रकार विविध प्रकार का शिक्षण प्राप्त करता हुआ कंस बड़ा हुआ, युवा हुआ। वह बहुत बलिष्ट एवं पराक्रमी हुआ। जरासन्ध का सन्देश एक बार का प्रसंग है, राजा समुद्र विजय अपने छोटे भाइयों, मन्त्रियों, उच्चधिकारियों तथा सभासदों के साथ राजसभा में बैठा था। तभी द्वारपाल से अनुमति प्राप्त कर एक दूत सभा में प्रविष्ट हुआ। अपना परिचय देते हुए उसने कहा--"राजन् । अर्धचक्रवर्ती राजगृह-नरेश महाराज जरासन्ध का मैं दूत हूँ।" समद्र विजय ने दूत का समुचित आदर किया, उसे आसन दिया, महाराज जरासन्ध का कुशल-क्षेम पूछा और जिज्ञासा की कि महाराज का क्या सन्देश है ? - दूत ने कहा- राजन् ! महाराज जरासन्ध का सन्देश है कि वैताढ्य गिरि के समीपस्थ सिंह पुर नामक नगर के राजा सिंहरथ को बन्दी बना लाएं।" समुद्रविजय -"सिंहरथ का क्या अपराध है ?" दूत- "वह बड़ा मदोन्मत्त और उद्धत हो गया है। उसे अपने बल एवं पराक्रम पर बड़ा घमंड है । वह दु:सह है । स्वामी का यह भी कथन है कि जो पुरुष सिंहरथ को बन्दी बना लायेगा, उसके साथ वे अपनी राजकुमारी जीवयशा का विवाह कर देंगे तथा पुरस्कार के रूप में एक समृद्धिशाली, वैभवशाली नगर भी उपहृत करेंगे।" शौर्यपूर-नरेश को समद्धिशाली नगर का कोई लोभ नहीं था और न उसका जरासन्ध की पुत्री जीवयशा के प्रति ही कुछ आकर्षण था, किन्तु, महाराज जरासन्ध की इच्छा की भी अवहेलना नहीं की जा सकती थी। वह चिन्ता में पड़ गया, क्या करें, कैसे करें। जरासन्ध के दूत ने जब समुद्रविजय की चिन्ताकुल मुख मुद्रा देखी तो वह ताने के स्वर में बोला-"राजन् ! सिंह रथ का नाम सुनते ही क्या भयान्वित हो गये ?" कमार वस देव के मन पर इससे आघात लगा । उसने कहा-"दूत ! तुम चिन्ता मत करो। ऐसा समझो, सिंहरथ बन्दी हो गया है।" वसुदेव ने अपने ज्येष्ठ बन्धु समुद्रविजय से सिंहरथ को पराभूत करने हेतु प्रस्थान की आज्ञा चाही। समुद्रविजय ने गंभीर भाव से कहा -“सिंहरथ को जीतने मैं जाऊँगा।' कुमार वसुदेव ने पुन: उत्साह के साथ विनम्रतापूर्वक आग्रह किया कि यह अवसर कृपया मुझे प्रदान करें। __ अन्तत: सनुद्रविजय ने वसुदेव का आग्रह स्वीकार कर लिया । उसे युद्धार्थ जाने का आदेश दिया और यह भी कहा कि वह अपने सेवक कंस को भी साथ लेता जाए, उसे युद्ध में अपना पराक्रम प्रदर्शित करने का अवसर दे। वसुदेव और सिंहरथ का द्वन्द्व-युद्ध वसुदेव कंस को साथ लिए अपनी सेना सहित सिंहपुर पहुंचा। राजा सिंहरथ यह सुनकर अपनी सेना के साथ उससे आ भिड़ा। युद्ध का भीषण एवं रोमांचक दृश्य उपस्थित हो Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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