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मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३
उत्पन्न हुआ। पुत्रोद्भव नारी के मातृत्व का पुण्य प्रसाद । प्रत्येक नारी के पुत्रोत्पत्ति सुखप्रद होती है, महारानी ने भी ज्योंही पुत्र का मुख देखा, हर्ष का अनुभव किया, किन्तु, दूसरे ही क्षण जब उसने गौर किया कि जिस जीव के गर्भ में आते ही मेरे मन में अत्यन्त क्रूर एवं निठुर दोहद उत्पन्न हुआ, यह निश्चित रूपेण आशंकित है, वह बालक आगे चलकर बड़ा दुःखद और घातक सिद्ध होगा। महारानी इसकी कल्पना मात्र से कांप गई। उसने यह निश्चय किया कि ऐसे बालक को किसी भी स्थिति में नहीं रखना चाहिए।
महारानी ने अपनी सेविका को बलाया। उसे आज्ञा देकर एक कांस्य-मंजषा मंगवाई। मंजषा में उसने अपने तथा उग्रसेन के नामांकन से युक्त मद्रिका-परिपूर्ण वत्तयक्त पत्र एवं प्रचर रत्न रख दिये । उन पर नवजात शिशु को सुला दिया। मंजषा बन्द की। सेविका को आदेश दिया कि इसे यमुना में बहा आओ।
सेविका ने अपनी स्वामिनी का आज्ञा-पालन किया। मंजूषा नदी में प्रवाहित कर दी।
प्रातःकाल जब राजा ने रानी से प्रसव के सम्बन्ध में जिज्ञासा की तो रानी ने कहा कि पुत्र हुआ था, जो उत्पन्न होते ही मर गया। बात बड़े सहज रूप में कही गई। राजा को विश्वास हो गया । सब यथावत् चलने लगा।
__ कांस्य-मंजूषा यमुना की लहरों पर तैरती-तैरती मथुरा से शौर्यपुर जा पहुँची। प्रात:काल का समय था। शौर्य पुर वासी सुभद्र नामक रस-वणिक्-घृत, तेल, मधु आदि का व्यवसायी शौचादि से निवृत होने यमुना-तट पर आया था। उसने नदी की उत्ताल तरंगों पर थिरकती, आगे बढ़ती मंजूषा देखी। उसे जिज्ञासापूर्ण उत्सुकता हुई । वह मंजूषा नदी-तट पर खींच लाया । उसे खोला । उसे नवजात शिशु, नामांकित मुद्रिका, पत्र एवं रत्न मिले । वह सारी स्थिति से अवगत हुआ।
सुभद्र वह मंजूषा अपने घर ले आया। मद्रिका, पत्र आदि सुरक्षित रखे। अपनी पत्नी इन्दुमती को उस बालक के लालन-पालन का दायित्व सौंपा। वह शिशु कांस्य-मंजूषा से प्राप्त था; अतः उसका नाम कंस रखा गया।
कंस के कुसंस्कार
कंस मूलतः कुसंस्कारयुक्त था । ज्यों-ज्यों बड़ा हुआ, उसके कार्य में उसके बुरे लक्षण दीखने लगे। वह अपने साथ खेलने वाले, रहनेवाले बालकों से बात-बात पर लड़ पड़ता, मार-पीट कर डालता । नतीजा यह हुआ, सुभद्र तथा इन्दुमती के पास नित्य प्रति लोगों के उलाहने आने लगे । सुभद्र बालक कंस को डराता, धमकाता, ताड़ित करता, तजित करता, किन्तु, कंस की मनोवृत्ति पर उसका कोई असर नहीं पड़ता। उसके चेहरे पर हर समय क्रूरता छाई रहती । उसकी उद्दण्डता, उत्पाद निरन्तर बढ़ने लगे। किसी से लड़ने-झगड़ने के लिए तो मानो उसकी भुजाओं में खाज ही चलती रहती। राजकुमार वसुदेव की सेवा में
कंस जब तक दस वर्ष का हुआ, बड़ा दुर्धर्ष और दुर्दम हो गया। सुभद्र के वश की बात नहीं रही कि वह उसे नियन्त्रण में रख सके। सुभद्र ने जब देखा, कंस को ठीक रास्ते पर लाने के जो भी उसने उपाय किये, निष्फल सिद्ध हुए तो उसने उसे राजकुमार वसुदेव की सेवा में रख दिया।
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