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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
ग्रहण कर लिया । निरपवाद-रूपेण श्रुत-धर्म एवं चरित धर्म की आराधना करते हुए केवल ज्ञान प्राप्त किया, अन्ततः सर्व-कर्म-क्षय कर मुक्त हुआ, शाश्वत सुख प्राप्त किया । मथुराधिपति भोजवृष्णि ने संसार से विरक्त हो प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। उसका पुत्र उग्रसेन राज्याभिषिक्त हुआ । उग्रसेन की राजमहिषी का नाम धारिणी था । उप्रसेन और तापस : भिक्षार्थ आमन्त्रण
एक बार का प्रसंग है, राजा उग्रसेन नगर से बाहर गया हुआ था, यात्रा पर था । एकान्त वन में एक तापस तपोनिरत था । उग्रसेन ने उसे देखा । मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई । उसने तापस से निवेदन किया- "महात्मन् ! कृपा कर मेरे महल में पधारें, भिक्षा ग्रहण करें ।"
तापस ने कहा- -"राजन् ! मैं एक मास के अनशन के अनन्तर एक बार भोजन करता हूँ । वह भी एक ही घर से ग्रहण करता हूँ । दूसरे घर नहीं जाता । यदि उस घर से, जहाँ मैं जाता हूँ, भिक्षा प्राप्त हो जाती है तो पारणा कर लेता हूँ और फिर एक मास का अनशन स्वीकार कर लेता हूँ । यदि पहले घर में भोजन प्राप्त न हो तो बिना पारणे के ही मेरा तपःक्रम चलता है । यह मेरी चर्या है ।"
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राजा तापस का अभिप्राय समझ गया। उसने बड़े आदर के साथ तापस को भोजनार्थ आने हेतु पुनः निमन्त्रण दिया ।
तापस ने जब राजा का बहुत आग्रह देखा तो उसका आमन्त्रण स्वीकार कर लिया ।
राजा की व्यस्तता : विस्मृति
तापस मासिक अनशन के पारणे के दिन भिक्षार्थ राजमहल में पहुँचा। राजा ने भावावेश में निमन्त्रण तो दे दिया था, किन्तु, वह राजधानी में आकर अनेक कार्यों में व्यस्त हो गया । उस बात को भूल गया । और किसी का ध्यान इस तरफ था ही नहीं। तापस को किसी ने कुछ नहीं पूछा। वह निराश होकर लौट आया और उसने अपने तपःक्रम के अनुसार बिना पारण किये ही फिर एक मास का अनशन स्वीकार कर लिया ।
कुछ समय पश्चात् मथुरा-नरेश फिर उसी मार्ग से निकला, जो तापस के आवास. स्थान के पास से गुजरता था। ज्योंही तापस को देखा, उसे वह पूर्व प्रसंग स्मरण हो भाया और वह मन ही मन बहुत दुःखित हुआ कि कितना बड़ा अपराध हो गया है, एक तापस को आमन्त्रित कर वह उसका आतिथ्य नहीं कर सका। उसने तापस से क्षमा-याचना की तथा अत्यधिक अनुनय-विनय के साथ निवेदन किया- "महात्मन् ! आपको मेरे कारण बहुत कष्ट हुआ । एक मास के अनशन का आप पारणा तक नहीं कर सके । कृपा कर एक बार और पधारें, मैं आपको भिक्षा प्रदान कर पारितोष पा सकूं ।"
तापस ने पहले आना कानी तो की, किन्तु, राजा का विशेष आग्रह देख वह ना नहीं कह सका । उसने राजा का आमन्त्रण स्वीकार कर लिया ।
दूसरा मास पूरा हुआ। पारणे का दिन आया । तापस राजमहल में पहुँचा । तब भी वैसा ही घटित हुआ, जो पहले मास के अन्त में हुआ था। किसी ने भी तापस को नहीं पूछा । राजा फिर भूल गया था । तापस भूखा ही लौट गया । इस बार भी बिना पारणे के ही उसनेफिर अपना मासिक अनशन चालू कर दिया ।
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