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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन शास्ता बोले-भिक्षुओ! ऐसे मूढ शिष्य के साथ रहने की अपेक्षा तो स्थविर काश्यप के लिए एकाकी रहना ही अच्छा है।"
शास्ता ने इस तथ्य को विशद करते हुए कहा- "यदि अपने से उत्तम या अपने सदृश सहचारी-साथो न मिले तो अकेला रहना ही श्रेयस्कर है । अज्ञानी के साथ रहना कभी अच्छा नहीं।"
फिर भिक्षुओं को सम्बोधित कर भगवान् बोले-"वह भिक्षु न केवल इस जन्म में ही कुटी का ध्वंस करने वाला है, पूर्व जन्म में भी उसने ऐसा ही किया है। न केवल वह अभी क्रुद्ध होता है, पहले भी इसी तरह क्रुद्ध होता रहा है।"
भिक्षुओं ने पूर्व-कथा कहने का भगवान् से अनुरोध किया। भगवान् ने इस प्रकार कहा।
बोधिसत्त्व बये पक्षी के रूप में
पूर्व काल का वृत्तान्त है, वाराणसी में राजा ब्रह्मदत्त का राज्य था। तब बोधिसत्त्व ने बये पक्षी की योनि में जन्म ग्रहण किया। बड़े हुए । हिमालय-प्रदेश में आवास करने लगे। वर्षा, तूफान आदि से बचने के लिए एक सुन्दर, सुरक्षित घोंसला बनाया। बन्दर को कुटी बनाने की शिक्षा
एक दिन की बात है, मूसलाधार वर्षा हो रही थी। भीषण सर्दी थी। एक बन्दर सर्दी से काप रहा था । शीत इतना अधिक था कि उसके दांत कटकटा रहे थे । वह बोधिसत्त्व के समीप आकर बैठा । बोधिसत्त्व ने देखा-बन्दर बड़ा कष्ट पा रहा है। उन्होंने उसके हित की भावना से कहा - 'बन्दर ! तुम्हारा मस्तक मनुष्य के सदृश है, तुम्हारे हाथ और पैर भी मनुष्य के जैसे ही है । फिर वह कौन-सा कारण है कि तुम्हारे घर नहीं है, तुम नहीं बना पाते ?"
इस पर बन्दर बोला--- "यह सही है, मेरा मस्तक मनुष्य के सदृश है, हाथ-पैर भी उसी के जैसे हैं, किन्तु, मनुष्यों के जैसी श्रेष्ठ प्रज्ञा-बुद्धि मुझ में नहीं है।"
यह सुनकर बोधिसत्त्व ने कहा-"जिसका चित्त अनवस्थित-अस्थिर, चंचल होता है, जिसका चित्त हलका होता हैं—जिस में गंभीरता नहीं होती, जो मित्र की बात न मान उससे डाह करता है, जिसका शील अध्रुव-अस्थिर होता है जिसमें चरित्र की दृढ़ता नहीं होती, उसमें कभी शुचिभाव—पवित्र भाव, उच्च चिन्तन नहीं होता। वह कभी सुखी नहीं होता। इसलिए हे बन्दर ! तुम शील का व्यतिवर्तन, उल्लंघन मत करो, दुःशील का परि
१. चरं चे नाधिगच्छेय्य, सेय्यं सदिसमनोत्तमो। ___एकचरियं दळहं कयिरा, नित्थ बाले सहायता ॥१॥ २. मनुस्सस्सेव ते सीसं, हत्थपादा च वानर ।
अथ केन नु वण्णेन, अगारं ते न विज्जति ।। ३. मनुस्सस्सेव मे सीसं, हत्थपादा च सिंगिल ।
या हु सेट्ठा मनुस्सेसु, सा मे पचा न विज्जति ॥
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