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तस्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-बया और बन्दर : कुटिदूसक जातक ४६१ अनाचार-त्याग का शिक्षा
उससे अगले दिन का प्रसंग है, स्थविर महाकाश्यप उसी परिवार में गये, बैठे। परिवार के लोगों ने उनसे पूछा- “मन्ते ! आपको क्या तकलीफ है ? कल आप विहार में ही रहे, बाहर नहीं पधारे । हमने अमुक युवा भिक्षु के साथ आपके लिए खाद्य-पदार्थ भेजे, आपने आहार किया ?"
स्थविर ने यह सब सुना। वहाँ चुपचाप भोजन किया। कुछ भी उत्तर नहीं दिया। विहार में गये । सायंकाल जब उलुङ्कशब्दक उनकी सेवा में आया तो उन्होंने उससे कहा"आयुष्मन् ! अमुक गाँव में तुम गये, वहाँ अमुक परिवार में 'स्थविर अस्वस्थ हैं, उन्हें यह चाहिए, वह चाहिए' आदि कहकर खाद्य-पदार्थ लिए, फिर स्वयं खा गये। भिक्षु स्वयं अपने मुंह से पदार्थ-विशेष की याचना करे, यह उचित नहीं है । यह अनाचार है--भिक्षु आचार के प्रतिकल है। फिर कभी ऐसा मत करना।"
जब उसने ऐसा सुना, वह भीतर-ही-भीतर जल-भुन गया। स्थविर के प्रति उसके मन में क्रोध तो था ही, इस घटना से वह और बढ़ गया। वह मन-ही-मन कहने लगास्थविर की कितनी बुरी आदत है, उस दिन गर्म पानी की बात को लेकर मेरे साथ झगड़ा किया और आज मैंने इसके उपासकों के घर से लेकर मुट्ठी भर भात खा लिया, इसके लिए झगड़ा कर रहा है । मैं इसे देख लूंगा। उलुकशब्दक द्वारा तोड़-फोड़ : आगजनी
दूसरे दिन की बात है, जब स्थविर महाकाश्यप भिक्षार्थ गाँव में गये तो पीछे से उसने हाथ में मुद्गर उठाया, स्थविर के उपयोग में आगे वाले जो भी पात्र कुटी में थे, उन्हें तोड़फोड़ डाला । पर्णकुटी में आग लगा दी। स्वयं भाग गया। कुटी जल गई। इस घोर पाप-कृत्य के कारण वह जीते जी मनुष्य-प्रेत हो गया, सूख गया। मरकर वह अवीची नामक नरक में उत्पन्न हुआ। उस दुष्ट भिक्षु का अनाचार पूर्ण व्यवहार लोगों में प्रकट हो गया। शास्ता द्वारा प्रेरणा .. कतिपय भिक्षु राजगृह से विहार कर श्रावस्ती पहुँचे । उन्होंने अपने पात्र, चीवरवस्त्र आदि उपकरण उपयुक्त स्थान पर रखे। तब शास्ता श्रावस्ती में विराजित थे। वे उनके पास गये, प्रणाम किया, सन्निधि में बैठे। शास्ता ने उनसे कुशल-क्षेम पूछा, जिज्ञासा की-"अभी कहाँ से आये हो ?"
भिक्षुओं ने कहा- "भन्ते ! हम लोग राजगृह से आये हैं।" शास्ता ने पुनः पूछा-"वहाँ अभी धर्मोपदेष्टा कौन आचार्य हैं ?" "भन्ते ! इस समय वहाँ स्थविर महाकश्यप विराजित हैं।" "भिक्षुओ ! स्थविर महाकाश्यप कुशल-पूर्वक हैं ?"
भिक्षु बोले-"भन्ते ! स्थविर तो कुशलतापूर्वक हैं, किन्तु, उनके उलुङकशब्दक नामक शिष्य ने, जिसे आचार्य ने उसकी कुत्सित प्रवृत्तियों के परिहार हेतु उपदेश दिया, क्रुद्ध होकर बड़ा उत्पात किया। जिस समय स्थविर महाकाश्यप भिक्षार्थ गाँव में गये हुए थे, उसने हाथ में मुद्गर उठाया और स्थविर के उपयोग के सभी पात्रों को तोड़-फोड़ डाला, पर्णकुटी में आग लगा दी और वहाँ से भाग गया।"
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