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________________ तत्व । आचार : कथानुयोग) कथानुयोग-बया और बन्दर : कुटिदूसक जातक ४८६ अपमान का प्रतिशोध : बये के घोंसले का ध्वंश बया ने फिर अपनी बात को दुहराया, कई बार दुहराया तो बन्दर अपना सन्तुलन खो बैठा । उसने इसे अपना भारी अपमान समझा। वह जहाँ बैठा था, वहाँ से उछला । वृक्ष की उस शाखा पर जा पहुंचा, जिससे बया का घोंसला लटक रहा था। उसने उस शाखा को पूरा जोर लगाकर हिलाया । बया, जो घोंसले में बैठा था, जमीन पर आ गिरा। बन्दर ने घोंसले को अपने हाथों से तोड़-मरोड़ डाला, बिखेर डाला और उसे पवन में उड़ा दिया। ___ बन्दर ने फिर बया से कहा- “अब तुम भी मेरे जैसे निस्त्रप-त्रपाशून्य, लज्जाशून्य हो गये हो, मेरी ही तरह तुम अब वर्षा में भीग रहे हो, शीत से काँप रहे हो, कितने सुन्दर प्रतीत होते हो। शिक्षा जैसे गवित होकर बया ने स्वयं अपने विनाश को आमन्त्रित किया, उस प्रकार किसी भी लन्धि प्राप्त साधु को गर्व से, अहंकार से उन्मत्त, उद्धत नहीं बनाना चाहिए।' कुटि दूसक जातक "मनुस्सस्सेय ते सीसं"..... भगवान् ने यह गाथा, जब वे जेतवन में विहार करते थे, उस युवा भिक्षु के सम्बन्ध में कही, जिसने महाकश्यप स्थविर की कटी को जला दिया था। भगवान् ने उस कथा का इस प्रकार आख्यान किया दो युवा भिक्षु : एक सेवाभावी : एक असहिष्णु . स्थविर महाकश्यप उस समय राजगृह नगर के समीपवर्ती वन में एक कुटी में निवास करते थे। उनकी सेवा हेतु दो युवा भिक्षु उनके साथ रहते थे। उन युवा भिक्षुओ में एक सेवाभावी था, उपकार-परायण था, साभिरुचि स्थविर की सेवा करता था । दूसरा इससे विपरीत प्रकृति का था। वह असहिष्णु था। दूसरे द्वारा किए गये कार्य को अपने द्वारा किया गया बताना उसकी आदत थी। जब सेवाभावी, परोपकारी भिक्षु स्थविर के मुख-प्रक्षालन का पानी आदि रखकर चला जाता तो वह दूसरा भिक्षु स्थविर के पास जाता, उन्हें प्रणाम करता और कहता---''भन्ते ! मैंने मुख-प्रक्षालन हेतु आपके लिए जल रख दिया है। आप मुख-प्रक्षालन करें।" यों कहकर वह चला जाता। उपकारी भिक्षु प्रातःकाल शीघ्र उठकर स्थविर का परिवेण स्वच्छ कर जाता। जब स्थविर बाहर निकलते, तब वह दूसरा भिक्षु इधर-उधर झाड़ लगाने का उपक्रम कर यों दिखलाता मानो उसने समस्त परिवेण की स्वयं ही सफाई की हो। सेवाभावी एवं कर्तव्यनिष्ठ भिक्षु के यह सब ध्यान में था। उसने एक बार विचारा १. भाधार ---वृहत्कल्प भाष्य तथा वृत्ति उद्देशक १.३२५२, आवश्यक नियुक्ति ६८१, आवश्यकचूर्णी पृष्ठ ३४५, आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति २६२ । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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