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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ उन व्यापारियों में से आधे - ढाई सौ कहने लगे - " हम इनको नहीं छोड़ सकते । हम इनको नहीं छोड़ सकते । हम नहीं भागना चाहते । तुम जा सकते हो, भाग सकते हो ।" जिन ढाई सौ व्यापारियों ने ज्येष्ठ व्यापारी की बात मानी, ज्येष्ठ व्यापारी उन ढाई सौ मनुष्यों को साथ लेकर वहाँ से भाग छूटा। ४८६ बादल - अश्व के रूप में बोधिसत्त्व तब बोधिसत्त्व बादल अश्व के रूप में उन्पन्न हुए थे । उस बादल - अश्व का रंग सफेद था । उसका मस्तक काक सदृश था । उसके बाल मूंज जैसे थे । वह ऋद्धिशाली था । वह गगनचारी था । वह हिमालय से ऊँचा उठ गगन में आरोहण करता - उड़ता, ताम्रपर्णी द्वीप पर जाता, वहाँ ताम्रपर्णी सरोवर के कीचड़ में स्वयं उगे हुए धान खाता, वैसा कर वापस लौट आता । जब वह इस प्रकार जाता तो करुणा से अनुप्राणित होकर मनुष्य की वाणी में बोलता - "क्या कोई ऐसा है, जो जनपद जाना चाहता हो ।" वह तीन बार इस प्रकार कहता । अपने नित्य कर्म के अनुसार जब वह बादल - अश्व उस दिन उस प्रकार बोला तो उन भागने वाले व्यापारियों ने उसके पास जाकर हाथ जोड़कर कहा- "स्वामिनी ! हम जनपद जाना चाहते हैं ।" बादल - अश्व के सहारे बचाव बादल-अश्व ने कहा- "तो तुम मेरी पीठ पर चढ़ जाओ ।" कुछ उसकी पीठ पर चढ़े । कुछ ने उसकी पूंछ पकड़ी, कुछ हाथ जोड़े खड़े रहे। बोधिसत्त्व अपने विशेष पुण्यप्रभाव से उन व्यापारियों को, जो न पीठ पर चढ़ सके थे और न पूँछ ही पकड़ सके, सभी ढाई सौ व्यापारियों को जनपद ले गये । उनको अपने-अपने स्थानों पर पहुँचाया और स्वयं अपने रहने के स्थान पर आये । उन यक्षिणियों ने भी, जब उनको नये आदमी मिल गये, अपने पास रहे उन ढाई सौ व्यापारियों को मार डाला और खा लिया । बुद्धोपदेश """ शास्ता भिक्षुओं को सम्बोधित कर बोले- - "भिक्षुओ ! जो व्यापारी उन यक्षिणियों के मोहपाश में बँधे रहे- वशगत रहे, वे विनष्ट हुए। जिन्होंने बादल-अश्व का कहना माना, वे सकुशल अपने-अपने स्थानों पर पहुँच गये । भिक्षुओ ! बुद्धों के उपदेश के अनुरूप आचरण नहीं करने वाले भिक्षु भिक्षुणियाँ तथा उपासक उपासिकाएँ मी चार प्रकार के नरक, पांच तरह के बंधन, दण्ड आदि द्वारा घोर दुःख प्राप्त करते हैं । जो बुद्धों का उपदेश मानते हैं, तीन कुल सम्पत्तियाँ, छः काम-स्वर्ग एवं बीस ब्रह्मलोक प्राप्त करते हैं, अमृत महानिर्वाण का साक्षात्कार करते हैं, यों अनिर्वचनीय, सर्वोत्कृष्ट सुख की अनुभूति करते हैं । अभिसम्बुद्ध होने पर भगवान् ने ये दो गाथाएँ कहीं Jain Education International 2010_05 "ये न काहन्ति ओवादं नरा बुद्ध ेन देसितं । व्यसनं ते गमिस्सन्ति रक्खसीहीय वाणिजा ॥१॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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