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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-जिन रक्षित और रणया देधी : बा० जा० ४८५
पारियों को यह प्रतीत होता कि वे जहाँ आये हैं, वह मनुष्यों का निवास स्थान है, वे उन्हें खेती करते, गाय चराते गायों की रखवाली करते मनुष्य दिखातीं, गाये दिखातीं, कुत्तें दिखातीं। वस्तुतः यह सब माया जनित होता। वे उन व्यापारियों के पास जातीं और उनसे अनुरोध करती-“यह यवागूपेय है, यह भोजन है, यह खाद्य है। आप पीएँ, खाएँ, सेवन करें।" व्यापारियों को असलियत का ज्ञान नहीं होता। वे उनका दिया हुआ खा-पी लेते।
व्यापारी जब खा-पीकर विश्राम करते तो वे उनका कुशल-क्षेम पूछतीं, उनका परिचय पूछती-"आपका निवास कहाँ है ? कहाँ से आ रहे हैं ? कहाँ जाना है ?" वे कहते - "हमारी नौकाएँ टूट गई, इस कारण हमें द्वीप पर आना पड़ा।" इस पर वे कहती"मार्यो ! हमारे स्वामी भी नौकाएं लेकर, उन पर आरूढ़ होकर व्यापार्थ गये थे। तीन वर्ष व्यतीत हो गये हैं। वे नहीं लौटे । कहीं मर गये होंगे । आप भी व्यापारी हैं। हम आपके चरणों की सेवा करेंगी, आपकी होकर रहेंगी।"
यों वे यक्षिणियाँ उन व्यापारियों को कामिनियों के सदृश हास-विलास से आकृष्ट कर अपने साथ यक्षनगर में ले जातीं। इसी प्रकार पहले से पकड़े हुग जो मनुष्य तब तक जीवित होते, वे उन्हें जादू की साँकल से बाँचकर जेलखाने में डाल देतीं। यदि उन्हें अपने निवास स्थान ताम्रपर्णी द्वीप में ऐसे मनुष्य, जिनकी नौकाएं मग्न हो गई हों, नहीं मिलते तो वे उधर कल्याणी नदी तथा इधर नागद्वीप इन दोनों के मध्यवर्ती समुद्र तट पर भ्रमण करतीं। यही उनका कर्म था।
व्यापारी यक्षिणियों के चंगुल में
एक बार की घटना है, पांच सौ व्यापारी थे। अपनी नौकाएँ लिए समुद्र में आगे बढ़ रहे थे। उनकी नौकाएँ भग्न हो गईं। वे संयोगवश ताम्रपर्णी द्वीप में स्थित यक्षनगर के समीप उतरे । वे यक्षिणियाँ उनके समीप आईं। उन्हें लुभाया, मोहित किया, अपने साथ अपने नगर में ले आई। इससे पूर्व जो मनुष्य पकड़े हुए थे, उन्हें जादू की साँकल से बांध कर जेल खाने में डाल दिया। ज्येष्ठ यक्षिणी ने ज्येष्ठ व्यापारी को तथा अवशिष्ट यक्षिणियों ने अवशिष्ट व्यापारियों को अपना स्वामी बनाया।
ज्येष्ठ यक्षिणी तथा दूसरी यक्षिणियाँ रात के समय जब वे व्यापारी सोये होते, जेल खाने में जाती और वहाँ बंदी बनाये गये मनुष्यों का मांस खातीं । फिर वापस आतीं।
ज्येष्ठ व्यापारी की सूझ
ज्येष्ठ यक्षिणी कारागृह में मनुष्य का मांस खाकर वापस लौटती, तब उसका शरीर शीतल होता। एक बार वैसी स्थिति में ज्येष्ठ व्यापारी ने उसका स्पर्श किया तो उसे प्रतीत हुआ कि यह मानुषी नहीं, यक्षिणी है । उसने मन-ही-मन विचार किया-इसी की ज्यों ये दूसरी पांच सौ भी यक्षिणियां ही होंगी। हमको इस स्थान से भाग जाना चाहिए। दूसरे दिन प्रात:काल वह उठा, हाथ मुंह धोये । उसने अपने साथी व्यापारियों से कहा- "ये मानवियां नहीं हैं, यक्षिणियाँ है । हमारी ही तरह जब दूसरे व्यापारी, जिनको नौकाएँ भग्न हो जायेंगी, आयेंगे तो ये उन्हें अपने पति बना लेंगी और हमें खा जाएँगी । चलो, हम यहाँ से भाग चलें।"
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