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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग - जिन रक्षित और रणया देवी : बा०जा० ४८३ आर्य सुधर्मा द्वारा शिक्षा - आर्य सुधर्मा बोले – “आयुष्यमन् श्रमणो ! जो साधु या साध्वियां आचार्य अथवा उपाध्याय के पास दीक्षित हो कर फिर मनुष्य जीवन-सम्बन्धी कामभोगों में आसक्त होते हैं, उनकी याचना करते हैं, स्पृहा करते हैं, अभिलाषा करते हैं, वे इस जन्म में बहुत से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों तथा श्राविकाओं के द्वारा अवहेलना - योग्य, निन्दा योग्य होते हैं, अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं, उनकी दशा वैसी ही होती है, जैसी जिनरक्षित की हुई । जो निरक्षित की ज्यों पीछे देखता है— सांसारिक भोगों से आकृष्ट होता है, वह उसी की तरह धोखा खाता है, नष्ट हो जाता है जो जिनपालित की तरह पीछे नहीं देखता - परिव्यक्त सांसारिक भोगों में आसक्त नहीं होता, वह उसी की ज्यों निर्विन्धतया अपनी मंजिल पर पहुँच जाता है, अपना लक्ष्य साध लेता है; इसलिए साधक को चाहिए, वह सदा आसक्ति रहित रहे, अनासक्त भाव से वह चारित्र का पालन करे । चारित्र स्वीकार कर के भी जो सांसारिक सुख भोगों की कामना करते हैं, वे घोर संसार-सागर में गिरते हैं, भटकते हैं । जो भोगों की कामना नहीं करते, वे संसार रूपी बीहड़-वन को पार कर अपने सही लक्ष्य पर पहुँच जाते हैं । देवी द्वारा अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्ग : जिनपालित की स्थिरता पूर्वोक्त घटित हो जाने के बाद भी रद्वीप की देवी का क्रोध, क्षोभ शान्त नहीं हुआ । वह जिनपालित के पास आई। उसने उसे अनुकूल-प्रतिकूल, कड़े-मीठे, कारुणिक उपसर्गों द्वारा विचलित करने का, क्षुब्ध करने का, विपरिणत करने का दुष्प्रयास किया, पर, वह उसमें सफल नहीं हुई । इससे उसका मन, शरीर श्रान्त हो गया । वह अत्यन्त ग्लानि युक्त तथा खेद युक्त हो गई। फिर जिधर से आई थी, उधर ही वापस लौट गई । शैलक यक्ष जिन पालित को अपनी पीठ पर लिये लवण समुद्र के बीचोबीच होता हुआ उत्तरोत्तर चलता गया, चम्पा नगरी के समीप पहुँचा । चम्पा के बहिर्वर्ती उत्तम उद्यान में उसने जिन पालित को अपनी पीठ से उतारा, उससे कहा - "देवानुप्रिय ! यह चम्पा नगरी दृष्टिगोचर हो रही है।" यह कह कर उसने जिनपालित से विदा ली, जिस ओर से आया था, उसी और लौट गया। जिनपालित परिवार के बीच जिन पालित चम्पा में प्रविष्ट हुआ । अपने घर आया । अपने माता-पिता से मिला । उसने रोते-बिलखते हुए जिनरक्षित की मौत का समाचार सुनाया। जिनपालित, उसके माता-पिता, मित्रों, स्वजनों, पारिवारिक जनों तथा सजातीय पुरुषों ने जिनरक्षित के लिए लौकिक मृतकोचित कृत्य किये । ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता गया, वह शोक विस्मृत होता गया । एक बार की बात है, जिनपालित सुखासन पर स्थित था, सुख-पूर्वक बैठा था, उसके मां-बाप ने उससे पूछा - "पुत्र ! जिनरक्षित का मरण किस प्रकार हुआ ?" जिन पालित ने मां-पिता को सारी घटना विस्तार के साथ कही । जिन पालित अपने परिवार के साथ सांसारिक सुखोपभोग करता हुआ रहने लगा । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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