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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-जिन रक्षित और रणया देवी : बा. जा० ४८१
इस पर माकन्दी पुत्रों ने शैलक यक्ष से कहा-~~"देवानुप्रिय ! जैसा आप कहते हैं, हम वैसा ही करेंगे, आपके आदेशानुरूप, निर्देशानुरूप रहेंगे।"
अश्वरूपधारी शैलक पर आरूढ़
तदनन्तर शैलक यक्ष ने वैक्रिय समुद्घात एक बड़े अश्व का रूप बनाया। उसने माकन्दी-पुत्रों से अपनी पीठ पर चढ़ने के लिए कहा । माकन्दी-पुत्र बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने शैलक यक्ष को प्रणाम किया। प्रणाम कर वे उसकी पीठ पर आरूढ़ हुए। अश्व रूपधारी शैलक यक्ष माकन्दी-पुत्रों को अपनी पीठ पर लिए सात-आठ ताड़-प्रमाण आकाश में ऊँचा उड़ा । लवण-समुद्र को बीचोबीच होता हुआ वह जम्बू-द्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में विद्यमान चम्पा नगरी की ओर रवाना हुआ।
देवी द्वारा मौत की धमकी
उधर रत्न द्वीप की देवी ने लवण-समुद्र के अधिपति सुस्थिति नामक देव द्वारा सौंपे गये लवण-समुद्र की सफाई के कार्य को पूरा किया। वह अपने महल में लौटी। वहाँ उसे माकन्दी-पुत्र नहीं मिले । उसने उनकी पूर्व-दिशावर्ती उद्यान, उतर-दिशावर्ती उद्यान तथा पश्चिम दिशावर्ती उद्यान में क्रमशः खोज की। पर, वे कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुए। तब उसने अपने अवधि-ज्ञान का उपयोग लगाया और यह जाना कि माकन्दी-पुत्र अश्व रूपघारी शैलक यक्ष की पीठ पर आरूढ़ लवण-समुद्र के बीचोबीच होते हुए जम्बू-द्वीप की दिशा में जा रहें हैं। यह देखकर वह क्रोध से तमतमा उठी। उसने अपनी ढाल और तलवार ली, सात-आठ ताड़-प्रमाण वह आकाश में ऊँची उड़ी, अत्यन्त तीव्र गति से माकन्दी-पुत्रों के पास आई। वह उनसे कहने लगी-"अरे माकन्दीपुत्रो ! मृत्यु की कामना करने वालो ! क्या तुम यह समझते हो कि मेरा परित्याग कर लवण-समुद्र के बीचोबीच होते हुए अपने स्थान पर पहुँच जाओगे ? समझ लो, तुम तभी जीवित रह पाओगे, जब मुझे अपेक्षित मानोगे । यदि मुझे अपेक्षित नहीं मानोगे तो मैं नीले कमल तथा मैंसे के सींग जैसी इस काली तलवार से तुम्हारे सिर उड़ा दूंगी।" माकन्दी पुत्रों का अविचलन
माकन्दी पुत्रों ने रत्नद्वीप की देवी का यह कथन सुना, पर, वे न इससे भयभीत हुए, न त्रस्त हुए, न उद्विग्न हुए, न क्षुब्ध हुए और न भ्रान्त ही हुए। उन्होंने रत्नद्वीप की देवी के उक्त कथन को न आदर दिया, न हृदय में स्थान दिया और न उसकी कुछ परवाह ही की। यों उसके कथन को आदर न देते हुए वे शैलक यक्ष के साय लवण-समुद्र के बीचोबीच होते हुए आगे जाने लगे ।
देवी द्वारा कामोपसर्ग
रत्नद्वीप की देवी जब माकन्दी पुत्रों को अनेक प्रतिलोम-विपरीत उपसर्गों द्वारा विचलित करने में, क्षुब्ध करने में, विपरिणत करने में, लुभाने में सफल नहीं हुई तो वह मधुर शृंगारयुक्त, करुणाजनक अनुकूल उपसर्गों द्वारा उन्हें विचलित करने का प्रयत्न करने लगी। वह बोली-"माकन्दी पुत्रो ! देवानुप्रियो ! तुमने मेरे साथ हास विलास किया है,
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