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________________ ४८० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :३ वह देवी एक बार मेरे एक छोटे से अपराध पर अत्यन्त क्रुद्ध हो गई और उसने मेरी यह दशा कर डाली । देवानुप्रियो ! तुम्हारे साथ भी न जाने कब क्या बीते, न जाने किस भयानक विपत्ति में तुम पड़ जाओ।" माकन्दी पुत्रों ने शूली पर आरोपित उस पुरुष से यह बात सुनी तो वे अत्यन्त भयभीत हो गये । उन्होंने उस पुरुष से पूछा-: देवानुप्रिय ! क्या आप बतला सकते हैं, हम इस देवी के चंगुल से किस प्रकार अपने को छुड़ाएँ ?" शैलक यक्ष शूलारोपित पुरुष ने उनसे कहा- "इस वन-खण्ड में शैलक नामक यक्ष का आयतन -स्थान है। वह घोड़े का रूप धारण किये वहाँ निवास करता है। वह यक्ष अष्टमी चतुर्दर्शी, अमावस्या तथा पूर्णिमा को एक निश्चित समय पर उच्च स्वर से घोषित करता है- 'मैं किसको पार लगाऊँ ? किसकी रक्षा करूं?' देवानुप्रियो ! तुम उस यक्ष के स्थान पर जाओ, उसकी उत्तम फूलों से पूजा करो। पूजा कर, घुटने तथा पैर झुकाकर, दोनों हाथ जोड़े, विनय-पूर्वक उसकी पर्युपासना करते हुए ठहरो। जब वह यक्ष अपने नियत समय पर यों बोले-'मैं किसको पार लगाऊँ, किमकी रक्षा करूं' तो तुम कहना-'हमें पार लगाएं, हमारी रक्षा करें। केवल शैलक यक्ष ही तुम्हें रत्नद्वीप की देवी के चंगुल से छुड़ा सकता है । यदि ऐसा नहीं हो पाया तो मैं नहीं जानता, तुम्हारे शरीर की क्या गति हो, तुम पर क्या बीते।" यक्ष की अर्चा : पूजा यह सुनकर वे दोनों भाई बड़ी तेज गति से यक्षायतन की दिशा में चले । वहां एक पुष्करिणी थी। उसमें उन्होंने स्नान किया। स्नान करने के पश्चात् कमल, उत्पल, नलिन, सुभग आदि पुष्प लिये। यक्षायतन में आये । शैलक यक्ष को प्रणाम किया। महाजनोचित उत्तम पुष्पों से उसकी पूजा की। जैसा शूलारोपित पुरुष ने कहा था, वे अपने घुटने और पैर झुकाकर यक्ष को वन्दन-नमन करते हुए, उसकी पर्युपासना करते हुए वहाँ ठहरे । शैलक यक्ष की चेतावनी : सहायता अपने नियत समय पर शैलक यक्ष ने पुकारा-'मैं किसे पार लगाऊँ मैं किसकी रक्षा करूँ?" माकन्दी पुत्रों ने खड़े हो कर अंजलि बाँध कर कहा-'हमें पार लगाइए, हमारी रक्षा कीजिए।" शैलक यक्ष माकन्दी-पुत्रों से बोला- 'तुम मेरे साथ जब लवण-समुद्र के बीचोबीच में से जाओगे, तब वह पापिनी, क्रोधिनी, भयावहा, क्षुद्रा, दु:साहसिका रत्नद्वीप की देवी तुम्हें तीक्ष्ण, म दुल, अनुलोम-~-अनुकूल, प्रतिलोम-प्रतिकूल, शृंगारमय-कामुकतापूर्ण, करुणापूर्ण उपसर्गों-विध्न-बाधाओं द्वारा विचलित करने का प्रयास करेगी। देवानुप्रियो ! यदि तुम रत्न द्वीप की देवी द्वारा किये गये ऐसे दुष्प्रयास का आदर करोगे, अपेक्षित मानोगे तो मैं तुमको अपनी पीठ से नीचे गिरा दूंगा। यदि तुम रत्नद्वीप की देवी के उक्त दुष्प्रयास का आदर नहीं करोगे, अपने हृदय में उसे स्थान नहीं दोगे, उसे अपेक्षित नहीं मानोगे तो मैं रत्नद्वीप को देवी से तुम्हारा छुटकारा करा दूंगा।" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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