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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-जिन रक्षित और रणया देवी : बा० जा० ४७९
वहाँ सदा शरत् और हेमन्त ऋतु ही होती हैं। यदि उस उद्यान में भी तुम ऊब जाओ, मुझसे मिलने को उत्कंठित हो जाओ तो तुम पश्चिम दिशा के उद्यान में चले जाना । उसमें सदा वसन्त और ग्रीष्म ऋतु ही होती है।
"देवानुप्रियो ! यदि वहाँ भी तुम्हारा मन न लगे तो इस श्रेष्ठ प्रासाद में लौट जाना, यहाँ आकर ठहरना, मेरी प्रतीक्षा करना, दक्षिण दिशा के वन-खण्ड में कभी मत जाना । वहाँ एक बड़ा साँप रहता है । वह बहुत जहरीला है। उसका जहर बड़ा चण्ड, उग्र घोर और विपुल है। उसका शरीर बहुत विशाल है। वह जिस पर दृष्टि डाल देता है, उसमें उसका विष व्याप्त हो जाता है। इसलिए ध्यान रखना, कहीं ऐसा न हो, तुम उधर चले जाओ और प्राणों से हाथ धो बैठो।" देवी ने दो-तीन बार इस प्रकार हिदायत की। तत्पश्चात् वह अपना कार्य करने चली गई।
देवी के चले जाने पर कुछ देर बाद उनका मन नहीं लगा । वे पूर्व-दिशावर्ती उद्यान में आये। वहाँ वापी आदि में क्रीड़ा की, मनोविनोद किया, पर, वे वहाँ भी ऊब गये। इस लिए उत्तर-दिशावर्ती उद्यान में गये । वहाँ मन बहलाव किया, पर, अधिक समय वहाँ नहीं टिक पाये। इसलिए वे पश्चिम-दिशावर्ती उद्यान में गये। पिछले उद्यानों की ज्यों वहाँ भी आनन्दोल्लासमय वातावरण था, पर, उनका मन नहीं लगा।
वे दोनों आपस में विचार करने लगे कि देवी ने हमें दक्षिण-दिशावर्ती उद्यान में जाने से रोका है, हो न हो, इसमें कोई रहस्य है। यों सोचकर उन्होंने दक्षिणवर्ती उद्यान में जाने का निश्चय किया, उस ओर रवाना हुए। ज्यों ही आगे बढ़े, उधर से बड़ी भीषण दुर्गन्ध आने लगी, मानो वहाँ गाय, कुत्ते, बिल्ली, मनुष्य, भैसे, चूहे, घोड़े, हाथी, सिंह, बाघ, भेड़िया या चीते के मृत शरीर हों। वे दुर्गन्ध से घबरा गये । अपने दुपट्टों से मुंह ढक लिये। मुंह ढककर वे आगे बढ़ते गये। वन-खण्ड में पहुँचे।
वध-स्थान : शूलारोपित चीखता पुरुष
वहाँ एक बहुत बड़ा वधस्थान था। वह सैंकड़ों-सैकड़ों हड्डियों के समूह से व्याप्त था। देखने में बड़ा भयावह था । वहाँ एक पुरुष शूली पर चढ़ाया हुआ था। वह करुण-क्रन्दन कर रहा था, कष्ट से चीख रहा था। माकन्दी-पुत्र उसे देखकर भय मीत हो गये। फिर भी वे शूली पर आरोपित पुरुष के समीप पहुँचे और उससे बोले-'देवानुप्रिय ! यह क्या है ? किसका वधस्थान है ? तुम्हारा क्या परिचय है ? यहाँ किस कारण आये थे ? इस घोर विपत्ति में तुम्हें किसने डाला है ?" शुलारोपित पुरुष की दुःखभरी कहानी
शूली पर आरोपित, पीड़ा से कराहते उस पुरुष ने माकन्दी पुत्रों से कहा- "देवानुप्रियो ! यह वधस्थान रत्नद्वीप की देवी का है। मैं जम्बू-द्वीप के अन्तर्गत मरत क्षेत्र में विद्यमान काकन्दी नगरी का निवासी हूँ। घोड़ों का व्यापारी हूँ। मैंने अपने जहाज में बहुत से घोड़े तथा दूसरा सामान लादा, लवण समुद्र में यात्रा के बीच मेरा जहाज नष्ट हो गया। मेरा सारा सामान डूब गया । संयोग-वश मुझे एक काठ का पट्ट मिल गया। मैं उसके सहारे तैरते-तैरते रत्नद्वीप के पास पहुंच गया। तब रत्न द्वीप की देवी ने अवधि-ज्ञान द्वारा मुझे देखा, मुझे अपने अधिकार में किया, अपने महल में ले गई, मेरे साथ प्रचुर काम-भोग भोगने लगी।
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