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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३
निकट आ गये। किनारे पर पहुँचे। कुछ देर वहाँ विश्राम किया। विश्राम कर पटिया को छोड़ दिया। रत्नद्वीप में उतरे। खाने के लिए फलों की खोज की, फल तोड़े, खाये, बावड़ी में प्रवेश कर स्नान किया। स्नान कर बाहर आये। फिर पक्की जमीन पर, जो शिला जैसी थी, बैठे। कुछ शान्त हुए, विश्रान्त हुए। माता-पिता से यात्रा की आज्ञा लेना, चम्पा नगरी से रवाना होना, लवण-समुद्र में जहाज द्वारा आगे बढ़ना तूफान का आना, जहाज का हूब जाना, काष्ठ-फलक का मिलना, उसके सहारे रत्नद्वीप पर पहुँचना इत्यादि बातों पर वे बार-बार विचार करने लगे। उनके मन का संकल्प टूट चुका था। वे मुंह हथेली पर टिकाए चिन्तामग्न थे।
रत्नद्वीप देवी द्वारा भीति प्रदर्शन : काम-लिप्सा
रत्नद्वीप की देवी ने अवधि-ज्ञान द्वारा जिन पालित और जिनर क्षित को देखा। उसने अपने हाथ में ढाल और तलवार ली। सात आठ ताड़-प्रमाण ऊँचाई पर वह आकाश में उड़ी। अत्यन्त तेज देव-गति द्वारा चलती हुई माकन्दी पुत्रों के पास आई । वह अत्यन्त क्रुद्ध थी। माकन्दी पुत्रों को तीक्ष्ण, कठोर तथा निष्ठुर शब्दों में कहने लगी-"मौत को चाहने वाले माकन्दी पुत्रो ! यदि तुम मेरे साथ प्रचुर काम भोग भोगते हुए रहोगे तो जीवित बचोगे, यदि ऐसा नहीं करोगे तो नीले कमल, भैंसे के सीग, नील की गोली तथा अलसी के फूल जैसी काली और उस्तरे की धार जैसी तीक्ष्ण तलवार से तुम्हारे वे सिर, जो दाढ़ीमूंछों से युक्त हैं, तुम्हारे माँ-बाप द्वारा सजाये-सँवारे केशों से शोभित हैं, ताड़ के फलों की ज्यों काट कर फेंक दूंगी।"
माकन्दी पुत्रों ने जब रत्नद्वीप की देवी से यह सुना तो अत्यन्त भयभीत हो गये, काँप गये । उन्होने हाथ जोड़कर कहा-'देवान प्रिये ! हम आपकी आज्ञा, वचन तथा निर्देश का पालन करेंगे।"
___ तदनन्तर देवी माकन्दी पुत्रों को साथ लेकर अपने महल में आई । अशुभ पुद्गलों को दूर कर शुभ पुद्गलों से समाविष्ट हुई। उनके साथ विपुल काम-भोग भोगने लगी। वह प्रतिदिन उनके लिए अमृत-सदृश फल लाती, उन्हें देती।
रत्नद्वीप देवी द्वारा लवण-समुद्र की सफाई हेतु गमन ।
तदनन्तर एक ऐसा प्रसंग बना, शक्रेन्द्र की आज्ञा से लवण-समुद्र के अधिपति सुस्थित नामक देव ने रत्नद्वीप की देवी को एक काम सौंपा कि उसे लवण-समुद्र की सफाई करनी है, वहाँ जो भी तृण, पत्र, काष्ठ, कचरा, सड़ी-गड़ी गंदी वस्तुएं आदि हों, वे सब इक्कीस बार हिला-हिला कर समुद्र से निकाल कर दूसरी ओर फेंक देनी है। यों उसे इक्कीस बार लवण समुद्र का चक्कर काटना है।
देवी ने माकन्दी पुत्रों से कहा- मैं लवण-समुद्र की सफाई के कार्य से जा रही हूँ। मैं जब तक वापस लौटूं, तुम इसी उत्तम महल में आनन्द के साथ रहना । यदि ऊब जाओ, मन न लगे तो पूर्व दिशा के उद्यान में जाना। उस उद्यान में सदा आषाढ़, श्रावण तथा भादोंआसोज की मौसम रहती है। अनेक वृक्षों के फूल सदा खिले रहते हैं । वर्षा का सुहावना मौसम रहता है । उसमें बहुत-सी बावड़ियाँ, सरोवर और लता-मंडप हैं । वहाँ खूब आनन्द के साथ अपना समय व्यतीत करना।
"यदि वहाँ भी तुम्हारा मन न लगे तो तुम उत्तर दिशा के उद्यान में चले जाना।
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