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तस्व : आचार : कथानुयोग] कधानुयोग-जिन रक्षित और रणया देवी : बा० जा० ४७७ हमने ग्यारह बार ये यात्राएँ की हैं, बहुत लाभ अजित किया है, कोई विघ्न नहीं हुआ। बारहवीं बार यात्रा करने की हमारी उत्कट इच्छा है।
माता-पिता ने यद्यपि अपने पुत्रों को बहुत प्रकार से समझाने का प्रयत्न किया, पर, वे मन से उनको यात्रा से विरत नहीं कर सके; अत: हादिक इच्छा न होते हुए भी उन्होंने अपने पुत्रों का मन रखने के लिए यात्रा करने की अनुमति प्रदान कर दी।
समुद्री यात्रा : तूफान
माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर उन्होंने अपने जहाज में बहुत प्रकार का माल लादा, रवाना हुए । लवण-समुद्र में सैंकड़ों-सैकड़ों योजन तक आगे बढ़ते गये । इस प्रकार अनेक सैंकड़ों योजन पार कर जाने के बाद असमय में समुद्र की गर्जना, बिजली चमक ना, बादलों की गड़गड़ाहट आदि उपद्रव होने लगे। प्रतिकूल तेज आँधी चलने लगी। वह जहाज तूफान से काँपने लगा, बार-बार विचलित होने लगा, संक्षुब्ध होने लगा, हाथ से जमीन पर पटकी हुई गेंद की ज्यों जगह-जगह नीचा-ऊँचा उछलने लगा। जहाज तरंगों के सैकड़ों प्रहारों से प्रताड़ित होकर थरथराने लगा। जहाज के काठ के हिस्से चूर-चूर हो गये। वह टेढ़ा हो गया। एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए काष्ठ-फलकों के जोड़ तडातड़ा टूटने लगे, उनमें ठोकी हुई लोहे की कीलें निकलने लगीं । उस के सब भाग पृथक्-पृथक् हो गये, बिखर गये। जहाज में बैठे हुए मल्लाह, व्यापारी, कर्मचारी हाय-हाय कर चीखने लगे। वह जहाज अनेक प्रकार के रत्न, बहुमूल्य सामग्री तथा सामान से भरा था। जल के भीतर विद्यमान एक पर्वत से वह टकराया और भग्न हो गया,जल में डूब गया। अनेक मनुष्य भी अपने माल-असबाब के साथ जल में डूब गये। किन्तु, दोनों माकन्दी-पुत्र जिनपालित और जिनक्षिक बहुत फुर्तीले, कुशल, निपुण, बुद्धिमान्, समुद्री यात्रा में निष्णात तथा साहसी थे। उन्होंने टूटे हुए जहाज का एक काष्ठ-फलक-काठ का पहिया पकड़ लिया और उसके सहारे समुद्र पर तैरने लगे।
रत्न-द्वीप
लवण-समद्र में जहाँ वह जहाज नष्ट हआ था. उसी के पास एक बडा द्वीप था. जो रत्नद्वीप के नाम से विश्रुत था । वह अनेक योजन लम्बा था, अनेक योजन चौड़ा था। उसका घेरा अनेक योजन का था। उसके भू भाग भिन्न-भिन्न प्रकार के वृक्षों से सुशोभित थे। वह द्वीप बहुत सुन्दर, सुषमामय, उल्लासप्रद, दर्शनीय, मनोहर तथा मोहक था। उस द्वीप के ठीक बीच में एक उत्तम प्रासाद था। वह बहुत ऊँचा था, अत्यन्त शोभायुक्त तथा मनोहर था।
रत्नद्वीप देवी : चण्डा, रौद्रा
उस श्रेष्ठ प्रासाद में रत्नद्वीप-देवता नामक एक देवी निवास करती थी। वह देवी अत्यन्त पापिनी, चंड, रौद्र, क्षुद्र, साहसिक एवं भयावह स्वभाव की थी। उसके महल के चारों ओर चार वन-खण्ड थे। उनमें बडे हरे-भरे उद्यान थे।
भ्रातृदय : रत्न द्वीप पर .. जिनपालित और जिनरक्षित उस काठ के पटिया के सहारे तैरते-तैरते रत्नद्वीप के
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