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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ९. जिन रक्षित और रणया देवी : बालाहस्स जातक
काम-भोग की तीव्र अभिलाषा, दुर्वासना विनाश का कारण है । कामान्धो नैव पश्यति, जो कहा गया है, बिलकुल सच है, काम के आवेशं से विवेक के नेत्र नष्ट हो जाते हैं; अतएव काम-लोलुप अन्धे के रूप में अभिहित हुआ है।
ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र के नवम अध्ययन में जिन पालित एवं जिन रक्षित नामक दो वणिकपुत्रो की कथा है। रत्नद्वीपवासिनी रयणा देवी में कामासक्त जिनरक्षित देवी द्वारा निर्ममता पूर्वक मार डाला जाता है और उसका भाई जिनपालित, जो देवी के कामुक प्रलोभन में फँसता नहीं, सही सलामत अपने घर पहुँच जाता है।
ऐसा ही कथानक बाला हस्स जातक में है। वहां पांच सौ व्यापारियों का उल्लेख है, जो काम-लोलुपता-वश सिरीसवत्थुकी यक्षिणियों के चंगुल में फंस जाते हैं। उनमें से आधे कामावेश से विमुक्त हो, सुरक्षित अपने-अपने घर पहुंचते हैं तथा आधे, जो अपने को काम-पाश से छुड़ा नहीं पाते, बड़ी दुर्दशा के साथ यक्षिणियों के ग्रास बन जाते हैं।
यहाँ उपस्थिापित इन दोनों ही कथानकों की विषय-वस्तु की मौलिकता में काफी समानता है। जो विषमता है, वह कथा-प्रस्तार गत है। जैन कथा काफी विस्तृत है, बौद्ध कथा संक्षिप्त है, पर, दोनों का हार्द एक है---काम-भोग की दुर्लालसा से सदैव बचते रहना चाहिए।
जिन रक्षित मौर रयणा देवी माकन्दीपुत्र : जिनपालित, जिनरक्षित
चम्पा नामक नगरी थी। वहाँ माकन्दी नामक सार्थवाह निवास करता था। वह बहुत वैभव सम्पन्न था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। माकन्दी सार्थवाह के भद्रा की कोख से उत्पन्न दो पुत्र थे। उनमें से एक का नाम जिनपालित तथा दूसरे का जिनरक्षित था।
एक बार वे दोनों भाई आपस में वार्तालाप करने लगे-हम लोगों ने जहाज द्वारा ग्यारह बार लवण-समुद्र पर से यात्रा की है। यात्राओं में हमें अर्थ-लाभ हुआ, सफलता मिली, हम निर्विघ्नतया, सुखपूर्वक अपने घर लौटे। बड़ा अच्छा हो, हम बारहवीं बार भी जहाज द्वारा लवण-समुद्र पर से यात्रा करें। दोनों भाइयों ने परस्पर यों विचार किया । फिर वे अपने माता-पिता के पास आये, यात्रा, के लिए उनकी अनुमति चाही।
_माता-पिता ने उनसे कहा-"पुत्रो ! अपने यहाँ पूर्वजों से प्राप्त प्रचुर हिरण्य, स्वर्ण मणियाँ, मोती, मूंगे, लालें आदि रत्न तथा कांस्य आदि धातुओं के पात्र, बहुमूल्य वस्त्र, द्रव्य प्रभृति इतनी प्रचुर संपत्ति विद्यमान है, जो सात पीढ़ियों तक भी भोगने से समाप्त नहीं होगी। तुम घर में रहो, धन-सम्पत्ति का, सत्कार-सम्मान का, सांसारिक सुखों का भोग करो । लवण-समुद्र की यात्रा बहुत विघ्न-बाधाओं से युक्त है। फिर बारहवीं बार की यात्रा तो उपसर्ग या कष्टयुक्त होती ही है; अत: तुम यह यात्रा मत करो, जिससे तुम्हें कोई आपत्ति न झेलनी पड़े।"
दोनों पुत्रों ने अपने माता-पिता से दूसरी बार, तीसरी बार पुन: अनुरोध किया कि
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