________________
४७४
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३
भरत, अमात्य. राजपुरुष, जन-समुदाय-सभी ने राम-पंडित द्वारा दिया गया धर्मोपदेश, जिसमें जगत् की, जागतिक पदार्थों तथा सम्बन्धों की अनित्यता का सम्यक् विवेचन था, सुना, समझा। वे शोकातीत हो गये । भरतकुमार ने रामपंडित को प्रणाम किया तथा उनसे निवेदन किया- आप वाराणसी का राज्य स्वीकार करें, सम्हालें।"
राम पंडित बोले- “माई लक्ष्मण तथा सीता को अपने साथ ले जाओ, राज्य का संचालन करो।"
भरत कुमार बोला-"और देव ! आप?"
वापस नहीं लौटे
राम ने कहा- भाई ! पिता ने मुझे आज्ञा दी कि बारह वर्ष की अवधि के अनन्तर आकर राज्य सम्भालना । ऐसी स्थिति में मैं अभी वाराणसी कैसे चल सकता हूँ ? वैसा करने से पिता का आदेश भग्न होगा। यह मैं नहीं चाहता। बाकी रहे तीन वर्षों का समय ध्यतीत होने पर मैं वाराणसो जाऊंगा।"
___ भरत ने कहा-"तो इतते समय तक देव ! राज्य का संचालन कौन करेगा? हम राज्य संचालन नहीं करेंगे?"
तृण-पादुकाएँ : प्रतीक
इस पर राम पंडित बोले-'अच्छा तो जब तक मेरा आना नहीं होता, मेरी ये पादुकाएं राज्य-संचालन करेंगी।" यों कहकर तृण-पादुकाएँ पैरों से उतारी तथा उन्हें दे दी।
भरतकुमार, लक्ष्मण तथा सीता-तीनों ने राम पंडित को प्रणाम किया, विशाल जन-समुदाय के साथ वाराणसी पहुँचे। तीन वर्ष पर्यन्त राम पंडित की पादुकाओं ने राज्य किया। मंत्री पादुकाओं को राज-सिंहासन पर रखते, आभियोगों का-मुकदमों का फैसला करते । यदि फैसला सही नहीं होता तो सिंहासन पर रखी पादुकाएँ परस्पर लड़ने लगतीं। उस मुकदमे का फिर गहराई से सोचकर फैसला किया जाता। फैसला सही होने पर पादुकाएं शान्त रहती।
राम का आगमन : राजतिलक
तीन वर्ष की अवधि व्यतीत हुई। राम पंडित वन से वापस वाराणसी लौटे, उद्यान में प्रविष्ट हुए । भरतकुमार तथा लक्ष्मणकुमार को जब विदित हुआ कि उनके बड़े भाई
(पृष्ठ ४७३ का शेष) एकोव मच्चो अच्चेति, एकोव जायते कुले ! सञोगपरमा त्वेव, सम्भोगा सब्बपाणिनं ॥१०॥ तस्मा दि धीरस्स बहुस्सुतस्स, सम्पस्सतो लोकं इमं परं च । अञआय धम्म हृदयं मनंच सोका महन्ता पि न तापयन्ति ॥११॥ सोहं यसं च भोगं च, भरिस्सामि च जातके । सेसं सम्पालयिस्सामि, किच्चं एवं विजानतो ॥१२॥
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org