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तत्त्व : प्राचार : कथानुयोग]
कथानुयोग-रामचरित : नशरथ जातक
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जिन बहुत से मनुष्यों को सायंकाल देखते हैं, अगले दिन प्रात: उनमें से कतिपय दृष्टिगोचर नहीं होते, सदा के लिए चले जाते हैं।
"किसी की मृत्यु पर मूर्ख मनुष्य रो-पीटकर अपने को कष्ट देते हैं। यदि वैसा करने से वास्तव में उन्हें कोई लाभ हो, तब तो विचक्षण-विवेकशील, योग्य पुरुष रोये-पीटे ही। पर, यह स्पष्ट है, वैसा करने से कभी कोई लाभ नहीं होता।
"जो व्यक्ति अपने द्वारा हिंसा करता है-स्वयं को स्वयं के द्वारा उत्पीडित करता है, वह स्वयं कृश होता है--दुर्बल, क्षीण हो जाता है, दुर्वर्ण---विकृत वर्णयुक्त हो जाता है
वर्ण बिगड़ जाता है। रुदन-विलाप से मृत मनुष्यों को न कोई लाभ होता है, न उनका परिपालन होता है, संरक्षण होता है; अतएव रुदन, विलाप, रोना-पीटना किसी भी प्रकार से सार्थक नहीं है। वह
है, निष्प्रयोज्य है। "जैसे यदि घर में आग लग जाए, तो तत्काल जल से उसे परिनिर्वपित कर दिया जाता है-बुझा दिया जाता है, उसी प्रकार धैर्यशील, प्रज्ञाशील पुरुष को चाहिए, वह शोक को शान्त करे। जैसे हवा रूई को तुरन्त उड़ा देती है, उसी प्रकार उसे शोक को उड़ा देना चाहिए, भगा देना चाहिए, मिटा देना चाहिए।
राम ने आगे कहा-"मनुष्य अकेला ही आता है, किसी कुल में, वंश-परंपरा में, कुटुम्ब में अकेला ही जन्म लेता है । सब प्राणियों के पारस्परिक सम्बन्ध तभी तक हैं, जब तक उनका संयोग विद्यमान है। यही कारण है, जो पुरुष धैर्यशील है, बहुश्रुत है -विज्ञ है, इस लोक को तथा परलोक को सम्यक् रूप में देखता है, वह अष्ट लोक-धर्मों को जानता है। अतएव बहुत बड़े शोक भी उसके हृदय को तथा मन को परितप्त नहीं करते।
"यह सब देखते विज्ञ-विशिष्ट बुद्धिशील मनुष्य का यही कर्तव्य है कि वह प्रतिष्ठा, यश तथा सुख-भोग के साधन देने योग्य मनुष्यों को प्रतिष्ठा दे, यश दे, सुख-भोग के साधन दे और अपने ज्ञाति-जनों-जातीय व्यक्तियों एवं सम्बन्धी जनों का भरण-पोषण करे।"१
१. ये न सक्का पालेतुं, पोसेन लपतं बहुं । स किस्स विञ्ज मेधावी, अत्तानं उपतापये ॥३॥ दहरा च हि बुद्धा च, ये बाला ये च पण्डिता। अड्ढा चेव दलिद्दा च, सब्बे मच्चुपरायना ॥४॥ फलानं इव पक्कानं, निच्चं पपतना भयं । एवं जातानं मच्चानं, निच्चं मरणतो भयं ॥५॥ सायं एके न दिस्सन्ति, पातो दिट्ठा बहुज्जना। पातो एके न दिस्सन्ति, सायं दिट्ठा बहुज्जना ॥६॥ पीरदेवमानो चे कञ्चिदेव अत्थं उदब्बहे। सम्मूळ हो हिंसमत्तानं, कयिरा चेनं विचक्खणो॥७॥ किसो विवण्णो भवति, हिंसं अत्तानं अत्तनो। न तेन पेत्ता पालेन्ति, निरत्था परिदेवना ॥८॥ यथा सरनं आदित्तं, वारिना परिनिब्बये। एवं पि धीरो सुत्वा, मेधावी पण्डितो नरो। खिप्पं उप्पतितं सोकं, वातो तूलं व धंसये ।।६।।
(क्रमशः ४७४ पर)
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