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________________ ४६८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन लक्ष्मण का शव लिये आये, अपने वज्रावर्त धनुष का टंकार किया। वह शब्द दशों दिशाओं में व्याप्त हो गया। राम के मित्र माहेन्द्र देवलोक में स्थित देव जटायुध का आसन प्रकंपित हुआ। देव-माया से उसने असंख्य सुभट प्रस्तुत किए। विद्याधरों को परास्त कर दिया। विद्याधर भाग गये। देव अनेक युक्तियों द्वारा बड़ी कठिनाई से राम को प्रतिबोध दे पाये, उन्हें मोह-पाश से छुड़ा पाये। राम का वैराग्य : दीक्षा : कैवल्य राम ने प्रतिबुद्ध होकर लक्ष्मण की अंत्येष्टि की। उनको संसार से वैराग्य हो गया। उन्होंने सोलह हजार राजाओं, राजपुरुषों तथा सैतीस हजार महिलाओं के साथ सुव्रत मुनि के पास दीक्षा स्वीकार की। राम कठोर तपः-साधना एवं संयम की तीव्र आराधना में लग गये। वे क्रमश: उच्च भूमिकाएँ प्राप्त करते गये। उस समय सीता का जीव अच्युत स्वर्ग में इन्द्र के रूप में था। उसने अवधि-ज्ञान से अपना पूर्व-भव जाना । वह मोहासक्त हुआ। उसने सोचा-यदि राम पुनः संसारावस्था में आ जाएं तो भावी जन्म में मुझे उनका साहचार्य पाप्त हो सके; अतः क्रमशः उच्च स्थिति प्राप्त करता उनका साधना-क्रम यदि भग्न किया जा सके तो मेरी मन:कामना पूर्ण हो सकती है। यह सोचकर उसने देव-माया द्वारा ऋषि राम को साधना-च्युत करने का बहुत प्रयास किया, पर, वह सफल नहीं हो सका। माघ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी के तीसरे प्रहर राम को केवल ज्ञान हुआ। अच्युतेन्द्र ने अन्यान्य इन्द्रों ने, देवों ने बड़े आनन्दोत्साह से उनका कैवल्योत्सव मनाया। राम ने सुवर्ण कमल पर विराजित हो धर्मदेशना दी। अच्युतेन्द्र ने अपने द्वारा किये गये विघ्नात्मक अपराध के लिए क्षमा-याचना की। केवली रामचन्द्र लोगों को धर्म-देशना देते हुए उनका महान् उपकार करते रहे। ___ एक बार (सीता के जीव) अच्युतेन्द्र ने अवधि-ज्ञान द्वारा देखा कि लक्ष्मण चतुर्थ नारक भूमि में घोर वेदना से पीडित है। रावण भी वहीं है । अत्यन्त दु:खित है । अब भी उनका शत्रु-भाव नहीं मिटा है। वे अनेक रूप बनाकर परस्पर लड़ रहे हैं । अच्युतेन्द्र के मन में बड़ी करुणा उत्पन्न हुई। उसने उनको नरक से निकालने का सोचा। वह वहां गया। उसने उनको कहा- मैं तुम्हें नरक से बाहर निकालना चाहता हैं।" उन्होंने उत्तर दिया"हमें यहीं अपने कृत-कर्मों का फल भोगने दो।" अच्युतेन्द्र बोला- "मैं तुम्हारा दुःख नहीं देख सकता । तुम्हें यहां से निकाल लूंगा। देवशक्ति के बल द्वारा ऐसा करने का मुझ में सामर्थ्य है।" यों कहकर उसने दोनों को उठाया। पर उनके शरीर नवनीत की ज्यों पिध. लने लगे, गलने लगे । अच्युतेन्द्र उन्हें सम्भाल न सका । वे बोले-"किये हुए कर्म भोगने ही पड़ते हैं। देव या दानव कोई भी उन्हें टाल नहीं सकता, मिटा नहीं सकता।" अच्युतेन्द्र ने उनको वैर-विरोध का त्याग करने तथा सम्यक्त्व में सुस्थिर रहने की प्रेरणा दी और वह स्वर्ग को चला गया। एकदिन अच्युतेन्द्र केवली भगवान् राम की सेवा में आया। वन्दन-नमन किया। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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