SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 525
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-रामचरित : दशरथ जातक ४६५ ने अग्नि में प्रवेश किया। उसके सतीत्व के प्रभाव से वायु ने अपनी गति रोक दी, अग्निज्वाला में से पानी बहने लगा। पानी बढ़ता ही बढ़ता गया। लोग डूबने लगे, हाहाकार करने लगे। गगनचारी विद्याधर आकाश में उड़ गये, भूचारी मनुष्य भयानक संकट में पड़ गये, पुकार करने लगे। उनकी चीख-पुकार सुनकर सीता ने हाथ से जल-प्रवाह को स्तब्ध कर दिया। पानी रुक गया। लोगों ने सुख की साँस ली। लोगों ने देखा--अग्निकुण्ड के बीच, जो अब जलप्लावित था, सीता देवकृत स्वर्ण मय मणिपीठिका-सिंहासन में सहस्रदल कमल के आसन पर विराजित है । देवों ने दुन्दुभि-नाद किया, पुष्प-वृष्टि की। सीता का वैराग्य : स्वयं केश-लुंचन : दीक्षा सीता की अग्नि-परीक्षा हो गई। सीता सर्वथा निष्कलंक, निर्दोष सिद्ध हुई। राम ने सीता से क्षमा मांगी और उसे अपनी सोलह हजार रानियों में प्रधान पट्टमहिषीपटरानी बनाने की इच्छा प्रकट की। सीता ने राम से कहा-"स्वामिन ! यह संसार सर्वथा नि:सार है. स्वार्थमय है। अब मेरा इस संसार के प्रति कोई आकर्षण नहीं है। मेरा मन सांसारिक भोगों से विरक्त हो गया है। अब मैं निरपवाद चारित्र्य-धर्म के परिपालन में लग जाना चाहती हैं।" इतना कह कर सीता ने स्वयं अपने हाथों से अपने केशों का लुचन कर डाला। राम ने ज्योंही यह देखा, वे मूच्छित होकर गिर पड़े। शीतल जल आदि के उपचार द्वारा उन्हें चेतना प्राप्त हुई । वे शोक-विह्वल हो गये, विलाप करने लगे। मुनि सर्वगुप्ति ने सीता को दीक्षा प्रदान की। वह चरणश्री नामक प्रवर्तिनी की सन्निधि में साधना-निरत हो गई। लक्ष्मण आदि ने राम को सान्त्वना दी, समझाया। राम आत्मस्थ हुए । वे हाथी पर सवार होकर सकलभूषण नामक केवली प्रमु को वन्दन करने हेतु सपरिवार गये। साध्वी सीता भी वहाँ स्थित थी। केवली प्रभु ने राग, द्वेष के स्वरूप की व्याख्या करते हुए धर्मदेशना दी। विभीषण ने केवल भगवान से प्रश्न किया- 'सीता के जीवन में बड़े दु:खद प्रसंग धटित हुए। उसके लिए राम, लक्ष्मण का रावण के साथ संग्राम हुआ। रावण की मृत्यु हुई। प्रभो! इनका क्या कारण है? कृपया बतलाएं।" पूर्व भव केवली भगवान् ने कहा- पूर्व समय का वृत्तान्त है, क्षेमपुरी नामक नगरी में नयदत्त नामक वणिक् निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम सुनन्दा था। सुनन्दा से उसके धनदत्त तथा वसुदत्त नामक दो पुत्र हुए। उसी नगर में सागरदत्त नामक एक अन्य वणिक था। उसकी पत्नी का नाम रत्नाभा था। उसके एक कन्या थी। उसका नाम गुणवती था। वह अत्यन्त रूपवती थी । पिता ने उसका वाग्दान वसुदत्त के साथ किया। पर, माता ने धन के लोभ से उसी नगरी के निवासी श्रीकान्त नामक वणिक् को उसे देने का निश्चय किया। वसुदत्ता का याज्ञवल्क्य नामक एक ब्राह्मण मित्र था, जिससे उसे यह ज्ञात हुआ कि गुणवती की माता उसका सम्बन्ध श्रीकान्त के साथ करने के प्रयत्न में है। वसुदत्त ने श्रीकान्त की हत्या कर दी। श्रीकान्त ने भी मरते-मरते वसुदत्ता के पेट में छुरे से वार किया। दोनों मर गये । मरकर जंगली हाथी के रूप में उत्पन्न हुए। पूर्व-जन्म के वैर के ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy