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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
हृदय भीतर-ही-भीतर दुःख से रो रहा है। कोई ऐसा उपाय करें, जिससे सीता का कलंक घुस ।
सुग्रीव, विभीषण एवं भामंडल राम की आज्ञा से सीता के पास पुंडरीकपुर गये और उनसे अनुरोध किया कि आप हमारे साथ अयोध्या चलें ।
सीता ने शोक-विह्वल वाणी में कहा - "मुझ निरपराध के साथ जो व्यवहार हुआ है, उससे मेरा हृदय शोक की अग्नि से जलकर दग्ध हो गया है। मेरी आशाओं की वारिका सूख गई है । अब मैं राज - प्रासादों में रहने हेतु अयोध्या नहीं जा सकती । केवल अपने जीवन की पवित्रता तथा शील की अक्षुण्णता प्रमाणित करने के लिए मैं अयोध्या जा सकती हूँ । मेरे अयोध्या जाने का और कोई प्रयोजन रह नहीं गया है।"
सुग्रीव ने कहा - "इसी उद्देश्य से आप अयोध्या चलो।"
सीता सुग्रीव आदि के साथ अयोध्या पहुँची । अन्तःपुर की रानियों ने, पारिवारिक महिलाओं ने, दासियों ने सीता का स्वागत किया। राम उसके पास आये, अपने दुर्व्यवहार के लिए क्षमा याचना की
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सीता की अग्नि परीक्षा
सीता राम के चरणों में गिर पड़ी, कहने लगी- "आर्यपुत्र ! आप महान् करुणाशील, न्यायशील और मर्यादाशील हैं, परम दयालु हैं। जरा सोचें, आपने मुझ निरपराधिनी की परीक्षा तक नहीं की । अग्नि, जल आदि द्वारा परीक्षा कराई जा सकती थी । आपने मुझे यही भयानक अरण्य में छुड़वा दिया। यदि हिंस्र पशु मुझ पर वहाँ आक्रामण कर देते, तो मैं आर्त - रौद्रध्यान में मरती, मेरी दुर्गति होती । मेरा आयुष्य था, कुछ उत्तम योग था । पुंडरीकपुर के राजा वज्रजंघ ने एक बहिन की ज्यों मेरी रक्षा की, मुझे आश्रय दिया । भामंडल, सुग्रीव आदि के साथ मैं इसीलिए आई हूँ कि अपने सतीत्व की, शील की पवित्रता प्रमाणित कर सकूं। मेरी अग्नि परीक्षा कीजिए ।'
राम के नेत्र आँसुओं से भीग गए । वे कहने लगे "सीता ! मैं भलीभांति जानता हूँ, तुम गंगा के सदृश निर्मल हो । मैं लोकापवाद और अपयश सहने का साहस नहीं कर सका, यद्यपि वह मिथ्या था । अब तुम जलती हुई अग्नि में प्रवेशकर अपनी निष्कलंकता प्रणाणित कर दो, जिससे वे लोग, जिन्होंने तुम्हारी झूठी निन्दा की थी, तुम पर मिथ्याकलंक लगाया था, जान जाएं कि वे कितने झूठे थे ।'
सीता बोली - "स्वामिन् ! मैं इसके लिए सर्वथा तैयार हूँ ।"
राम ने एक सौ हाथ गहरा खड्डा खुदवाया । उसे अगर, चन्दन आदि सुगन्धित ज्वलनीय पदार्थों से भरवाया । उसमें आग लगवादी । नगर के लोग यह देखकर बहुत दु:खित हुए और राम की निन्दा करने लगे ।
निमित्तज्ञ सिद्धार्थ मुनि ने वहाँ आकर कहा - "सीता परम पवित्र है । उसके सतीत्व के प्रभाव से निश्चय ही अग्नि जल के रूप में परिणत हो जायेगी ।'
सीता ने अरिहंत प्रभु का स्मरण किया, नवकार मंत्र का ध्यान किया, तीर्थनायक मुनि सुव्रत स्वामी को वन्दन किया, अग्निकुण्ड के समीप आई और बोली - "लोकपालो ! देवो ! देवियो ! मनुष्यो ! मैंने यदि श्री राम के अतिरिक्त किसी भी पर-पुरुष की मन, वचन तथा शरीर से स्वप्न में भी वाञ्छा की हो, रागात्मक दृष्टि से देखा हो तो यह अग्नि जलाकर मुझे भस्म कर दे, अन्यथा यह जल के रूप में परिणत हो जाए ।" यों कहकर सीता
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