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________________ तत्त्व : माचार : कथानुयोग] कथानुयोग-रामचरित : दशरथ जातक ४६१ वीर पुत्र-युग्म को जन्म दोगी। तुम्हारे विमान से गिरने का प्रसंग कुछ अशुभप्रद प्रतीत होता है।" सौतों द्वारा षड्यन्त्र वसन्त आया । सब प्रसन्न थे। फाग खेलने लगे। राम, सीता, लक्ष्मण तथा विशल्या को जब सीता की सौतों ने हर्षोल्लास पूर्वक फाग खेलते देखा तो उन्हें सीता से बड़ी ईर्ष्या हुई । वे परस्पर सोचने लगीं- कोई ऐसा षड्यन्त्र रचें, जिससे सीता राम के मन से उतर जाए। एक बार सपत्नियों ने सीता को बुलाया और पूछा- "बहिन ! बतलाओ, रावण का कैसा रूप था? तुमने उद्यान में रहते हुए उसे अवश्य देखा होगा ?" सीता बोली-“मैं तो नीचा मुंह किये शोक से आँसू गिराती रहती थी। मैंने कभी उसके सामने आँख उठाकर भी नही देखा ।" सौतों ने कहा-'कभी-न-कभी रावण का कोई अंग, उपांग दिखाई दिया ही होगा?" सीता-दृष्टि नीचे किये रहने से उसके पैर अनायास दृष्टिगोचर हो गये।" सौतें-"हमें आप उसके पैरों का ही चित्रांकन कर बता दें। हमें बड़ी उत्सुकता है।" __ सीता ने सहज भाव से रावण के पैरों का चित्रांकन कर उन्हें दिया। उन्होंने उसे अपने पास रख लिया। फिर अवसर देखकर राम को उसे दिखलाते हुए कहा-"आप जिसके प्रेम में तन्मय हैं, वह सीता तो रावण के चरण-पूजन में अभिरत रहती है।" राम ने रानियों के कथन पर ध्यान नहीं दिया । उनको सीता के सतीत्व पर पूर्ण विश्वास था। मिण्या आलोचना होनहार प्रबल है, रानियों के दुष्प्रचार से राम के अन्त:पुर में तथा बाहर नगर में सीता के सम्बन्ध में आशंकाएँ और अफवाहें फैलती गई। गुप्तचरों ने आकर राम को बताया कि लोग उनकी आलोचना कर रहे हैं। राम स्वयं रात्रि में छद्म वेश में लोक-मानस जानने की दृष्टि से घूमे तो उन्हें लगा कि मिथ्या होने के बावजूद यह बात लोगों में विस्तार पाती जा रही है, लोक-निन्दा बढ़ रही है । वे बड़े दु:खी हुए, चिन्तित रहने लगे। सीता का निर्वासन लक्ष्मण ने राम को उदास देखा तो कारण पूछा। राम ने सारी स्थिति लक्ष्मण के समक्ष रखी । लक्ष्मण ने कहा-“सीता जैसी सती का जो अपयश करेंगे, मैं उन्हें मौत के घाट उतार दूंगा।" राम ने कहा-"लक्ष्मण ! लोक-प्रवाह को रोका नहीं जा सकता। हम राजा हैं, शासक हैं, मर्यादा-पालक हैं। हमें इस आशंका-जनित अपकीति को मिटाना ही होगा। सीता को परम शीलवती, सती जानते हुए भी लोक-मानस को देखते हुए उसका परित्याग करना ही होगा। लक्ष्मण बोला-“महाराज ! सीता के साथ यह अन्याय करना अत्यन्त अनुचित होगा, ऐसा कभी न करें।" ____Jain Education International 201005 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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