________________
तत्त्व : आचार : कथानुयोग]
कथानुयोग-रामचरित : दशरथ जातक
विशल्या द्वारा उपचार
___ इतने में विद्याधर आया। उसने कहा- "मैं लक्ष्मण को चेतना में लाने का उपाय बताने हेतु राम से मिलना चाहता हूँ।" भामंडल ने उसकी राम से भेंट करवाई। उसने कहा- “मेरा नाम चन्द्रमंडल है। मैं सुरगीत नगर के राजा दाशिमंडल और रानी शशिप्रभा
पुत्र हूँ। एक बार का प्रसंग है मैं गगन-मंडल में भ्रमण कर रहा था। पूर्व-जन्म की शत्रुता के कारण सहस्र विजय ने मुझ पर शक्ति-प्रहार किया। मैं मूछित हो गया, अयोध्या में एक बगीचे में गिर गया। भरत ने एक विशिष्ट जल-प्रयोग द्वारा मुझे चेतना-युक्त किया, मुझे बहुत उपकृत किया । उस जल की महिमा का आख्यान इस प्रकार है
भरत के मातुल द्रोण मुख की नगरी में महामारी फैली। बहुत उपाय किये जाने पर भी महामारी दूर नहीं हो सकी। द्रोणमुख स्वयं रोगयुक्त हो गया । पर, फिर वह रोगमुक्त हो गया तथा महामारी भी दूर हो गई।
भरत ने एक बार अपने मामा द्रोणमुख से पूछा-'आपके यहाँ जो भयावह महामारी फैली थी, वह कैसे गई ?"
द्रोणमुख ने कहा-“मेरी पुत्री विशल्या बड़ी पूण्यवती है। ज्योंही गर्भ में आई. उसकी रुग्ण माता नीरोग हो गई। उसे स्नान कराते समय ज्योंही उसकी धात्री के जल-स्नान के छींटे लगे, उसका रोग दूर हो गया। नगर में जब यह समाचार फैला, सभी लोग आआकर उसका स्नान-जल ले जाते रहे, उसका प्रयोग करते गये, स्वास्थ्य लाभ होता
गया।"
द्रोणमुख ने इतना तो बता दिया, पर, उसे नहीं मालूम था, विशल्या का ऐसा प्रभाव क्यों है। अतः उस सम्बन्ध में वह कुछ नहीं बता सका।
एक बार अयोध्या में मनः पर्यवज्ञान के धारक एक मुनि पधारे। भरत ने उनसे विशल्या के स्नान-जल के आश्चर्यकारी प्रभाव का कारण पूछा। मुनिवर ने बताया"विजय पुण्डरी किनी क्षेत्र की घटना है, वहाँ चक्रनगर में त्रिभुवनानन्द नामक चक्रवर्ती राजा हुआ। उसके एक कन्या थी। उसका नाम अनंगसुन्दरी था । वह अत्यन्त रूपवती थी। एक बार वह उद्यान में क्रीड़ा कर रही थी। प्रतिष्ठा नगरी के राजा पुण्यवसु विद्याधर ने उसका अपहरण कर लिया। उसे अपने विमान में बिठाकर ले जाने लगा। चक्रवर्ती के योद्धाओं ने उसे आ घेरा । घोर युद्ध हुआ। पुण्यवसु प्रहारों द्वारा जर्जर हो गया। उसका विमान भग्न हो गया। अनंगसुन्दरी दण्डाकार नामक भयानक अटवी में जा गिरी। वहाँ रहते हुए उसने तीन-तीन दिवस तथा. चार-चार दिवस का तप-अनशन करना प्रारंभ किया। पारणे के दिन वह फल देती। फिर तपश्चरण चाल कर देती। इस प्रकार तीन सौ वर्ष पर्यन्त वह भति कठोर तपश्चरण में निरत रही । अन्त में उसने संलेखना-पूर्वक चतुर्विध आहार का त्याग कर दिया, आमरण अनशन स्वीकार कर लिया। मेरु पर्वत की ओर से आता हुआ एक विद्याधर उधर से निकला। उसने अनंगसुन्दरी से कहा कि यदि तुम चाहो, तो मैं तुम्हारे पिता के पास पहुंचा दूं। अनंगसुन्दरी ने यह स्वीकार नहीं किया। तब उस विद्याधर ने उसके पिता चक्रवर्ती त्रिभुवनानन्द को यह सूचना दे दी। चक्रवर्ती शीघ्र ही वहाँ पहुँचा, उसके कुछ ही पूर्व एक अजगर ने अनंगसुन्दरी को निगल लिया। चक्रवर्ती को अपनी पुत्री की दुःखद मृत्यु से बड़ा शोक हुआ। साथ-ही-साथ उसके त्याग-वैराग्यमय जीवन से वह सत्प्रेरित हुआ। उसने संयम-ग्रहण किया। उसके बाईस हजार पुत्र भी
___Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org