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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोगी. गांधायमानुमन-310वित : दशरथ जातक ४५१ मुनिगण ने वहाँ निर्वाण प्राप्त किया, इसलिए कोटि-शिला के नाम से विश्रुत हुई । लक्ष्मण ने सबके सामने उसे अपनी बाईं भुजा से अनायास ऊंचा उठा दिया। इस पर हर्षित होकर देवों ने पुष्प-वृष्टि की। वहाँ से समेतशिखर होते हुए वे विमान द्वारा किष्किन्धा आये। पवनपुत्र हनुमान् द्वारा दौत्य राम बोले- “अब हम निश्चिन्त न बैठे। हमें लंका पर शीघ्र आक्रमण करना चाहिए।" सुग्रीव ने कहा-"यह तो ठीक है, पर, हमें यह ध्यान में रखना होगा, रावण विलक्षण विद्याओं से सम्पन्न है। उसका भाई विभीषण न्याय-परायण है, उत्तम श्रावक है। हम दूत भेजकर सारी स्थिति उसके समक्ष रखवाएं, जिससे सीता प्राप्त हो जाए, युद्ध टल जाए।" राम बोले-"सुग्रीव ! तुम्हारी सम्मति उचित है, पर, बतलाओ, दूत के रूप में किसे भेजा जाए, जो कार्य सुन्दर रूप में सम्पन्न कर सके।" सबका अभिमत रहा कि पवन पुत्र हनुमान् यह कार्य भलीभाँति कर सकते हैं। उन्हें भेजा जा सके तो बहुत उत्तम है। हनुमान् को बुलाने हेतु श्रीभूति नामक दूत भेजा गया। दूत हनुमान् के यहाँ पहुँचा । दूत ने उनके समक्ष सारी स्थिति रखी। उनकी एक पत्नी अनंगकुसुमा खरदूषण की पुत्री थी। वह अपने पिता और भाई की मृत्यु के सम्बन्ध में सुनकर बहुत दुःखित हुई । सबने उसे सान्त्वना दी, धैर्य बँधाया। उनकी दूसरी पत्नी कमला सुग्रीव की पुत्री थी। अपनी माता तारा तथा पिता सुग्रीव की सहायता करने, उनका संकट टालने के समाचार से वह प्रसन्न हुई। उसने दूत का बड़ा आदर किया। हनुमान् राम के उत्तम गुणों से प्रभावित हुए, मन में उनके प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ । वे विमान द्वारा किष्किन्धा आये। राम और लक्ष्मण ने उनका सत्कार किया। हनुमान् ने राम की मुद्रिका ली, संदेश लिया और वे सेना के साथ आकाश-मार्ग द्वारा लंका की दिशा में रवाना हुए। शीघ्र ही वहाँ पहुँचे। सामने आये विघ्नों का शक्तिपूर्वक निवारण किया। वे विभीषण से मिले। उन्होंने उसे यह भार सौंपा कि वह रावण को समझाए, सीता को वापस लौटाने के लिए सहमत करे। तत्पश्चात् हनुमान् सीता के पास उपस्थित हुए। सीता अत्यन्त क्षीण, चिन्ताग्रस्त एवं दुःखित अवस्था में बैठी थी। हनुमान ने राम द्वारा अपने साथ भेजी गई मुद्रिका सीता को दी, प्रणाम किया। उसके दूत के रूप में अपना परिचय दिया, राम-लक्ष्मण के समाचार सुनाये। . तब मन्दोदरी, जो वहाँ उपस्थित थी, हनुमान् से बोली-"आप तो बहुत बड़े योद्धा हैं । आपने रावण के समक्ष वरुण को पराजित किया। इस पर प्रसन्न होकर रावण ने अपनी बहिन चन्द्रनखा की पुत्री अनंगकुसुमा आपको ब्याही । पर, बड़ा खेद है, आपने भूचर-भूमि पर चलने वाले मनुष्य की सेवा करना स्वीकार किया, जो आपके लिए शोभनीय नहीं है।" हनुमान् ने कहा-"अपने उपकारी का प्रत्युपकार करने की भावना से हमने जो दौत्य-कार्य स्वीकार किया, वह हमारे लिए किसी भी प्रकार से अशोभनीय नहीं है, सर्वथा समुचित है । तुम यहाँ सीता के पास अपने पति रावण की दूती का कार्य करने आई हो, जरा सोचो, क्या यह अत्यन्त दूषणीय तथा निन्दनीय नहीं है ?" यह सुनकर मन्दोदरी रावण की प्रशंसा तथा राम की निन्दा करने लगी। सीता ने उसे टोका। वह सीता पर मुष्टि-प्रहार करने को उद्यत हुई। हनुमान ने इसके लिए उसे ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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