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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] चन्द्रनखा कथानुयोग -- रामचरित : दशरथ जातक रावण की बहिन का नाम चन्द्रनखा था । उसने उसका खरदूषण के साथ विवाह किया । खरदूषण को पाताल - लंका का राज्य प्रदान कर दिया । ૪૪૬ चन्द्रनखा के शम्ब तथा शम्बूक नामक दो पुत्र हुए। बड़े होने पर शम्बूक विद्या साधने हेतु दण्डकारण्य में गया । वहाँ वह कंघुरवा नदी के तट पर स्थित बांसों के जाल में बरगद के वृक्ष से उलटा लटककर चन्द्रहास खड्ग प्राप्त करने हेतु तपः साधना करने लगा । वैसा करते हुए बारह वर्ष तथा चार दिन व्यतीत हो गए । विद्या के सिद्ध होने में केवल तीन दिन बाकी थे । संयोग ऐसा बना कि लक्ष्मण उस ओर गया । उसने बांसों के जाल में लटकती हुई दिव्य तलवार को देखा। उसे हाथ में लिया और बांसों के झुरमुट पर प्रहार कर दिया, जिनके बीच शम्बूक लटका हुआ साधना कर रहा था । शम्बूक का कुण्डल- भूषित मस्तक क ँ र नीचे गिर गया । लक्ष्मण ने जब यह देखा, उसे असीम शोक हुआ। उसने मन-ही-मन कहा, मेरे पराक्रम को धिक्कार है । मैंने कितना बड़ा कुकृत्य किया, एक अपराध रहित विद्याधर का वध कर डाला । मुझसे यह बड़ा भयंकर पाप हो गया । वह राम के पास आया । सारी घटना कही । राम ने कहा--" यह वीतराग प्रभु द्वारा निषिद्ध अनर्थ दण्ड- निरर्थक हिंसा है । ऐसा कभी नहीं करना चाहिए । भविष्य में जागरूक रहना : पुत्रशोकाहता चन्द्ररखा तपः साधना में लगे अपने पुत्र को देखने उधर आई । जब उसने उसे मरा हुआ देखा, उसके शोक का पार नहीं रहा । वह बुरी तरह विलाप करने लगी । रोने-बिलखने से जब उसका मन कुछ हल्का हुआ, तो शम्बूक का वध करने वाले की वह खोज करने लगी। उस हेतु दण्डकारण्य में घूमने लगी । राम पर विमुग्ध : निराशा दण्डकारण्य में घूमते हुए चन्द्रनखा की दृष्टि राम पर पड़ी । वह राम की सुन्दरता पर विमुग्ध हो गई । सहसा पुत्र मरण का शोक भूल गई। उसने एक अत्यन्त सुन्दर कन्या का रूप धारण किया । वह राम के पास आई । तरह-तरह के हाव-भाव और शृंगारिक चेष्टाएं प्रदर्शित कर वह राम को रिझाने, लुभाने का प्रयास करने लगी । राम ने उससे पूछा – “तुम वन में अकेली क्यों घूम रही हो, कौन हो ?" वह बोली - " मैं अवन्ती की राजकुमारी हूँ । एक विद्याधर ने मेरा हरण किया । वह मुझे इस वन के ऊपर से आकाश मार्ग से ले जा रहा था । एक दूसरा विद्याधर उसे मिला । उसने मुझे ले जाने से उसे रोका। मुझे छोड़ दोनों लड़ पड़े । लड़ते-लड़ते दोनों ही मर गये । अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, आप मुझे आश्रय दें, स्वीकार करें।" Jain Education International 2010_05 I राम निर्विकार थे। कुछ नहीं बोले, मौन रहे । वह लक्ष्मण के पास गई। वहाँ भी वह निराश हुई। वह बड़ी विक्षुब्ध हुई । उसने खुद अपने शरीर को नखों से तथा दाँतों से नोच डाला, क्षत-विक्षत कर लिया। वह रोती- पीटती अपने पति के पास गई। पति से कहा - " किसी भूचर (मनुष्य) ने चन्द्रहास खड्ग द्वारा शम्बूक का वध कर दिया है तथा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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