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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
राजा दण्डकी संसार-चक्र में घूमता हुआ इसी वन में दुर्गन्धित गीध के रूप में उत्पन्न हुआ। जब इसने हमें देखा तो इसे पूर्व-भव का ज्ञान हो गया। इसीलिए इसने वन्दन किया, नमन किया । धर्म के प्रभाव से इसका शरीर सुरभित हो गया।"
उस गीध ने मांस का त्यागकर दिया तथा रात्रि भोजन आदि का भी त्याग कर दिया। वह धर्म की आराधना करने लगा। मुनि वहाँ से चले गए। वह गीध सीता के पास रहने लगा। उसकी देह पर सुहावनी जटा थी। उसके कारण वह जटायुध कहा जाने लगा। शुद्ध साधु के दिये गए दान के प्रभाव से राम के पास रत्नमणि आदि के रूप में विपुल समृद्धि हो गई। देवताओं ने राम को चार घोड़ों का रथ भेट दिया। राम, सीता और लक्ष्मण वहाँ आनन्द पूर्वक रहते रहे।
दण्डकारण्य में भ्रमण करते हुए राम, सीता तथा लक्ष्मण एक नदी के तट पर विद्यमान एक वन-खण्ड में आए। उस वन-खण्ड में उत्तम रत्नों की खानों से युक्त पर्वत थे, फलों और फूलों से आच्छादित वृक्ष थे, निर्मल जलयुक्त नदी थी। राम को वह वन-खंड बड़ा रुचिकर लगा । वे सीता तथा लक्ष्मण के साथ वहीं रहने लगे।
लंकापति रावण
तब लंका में रावण राज्य करता था। लंका चारों ओर समुद्र से घिरी थी। रावण दशमुख या दशानन के नाम से प्रसिद्ध था। रावण की उत्पत्ति का वृत्तान्त इस प्रकार
वैताढ्य पर्वत पर रथनूपुर नगर में मेघवाहन नामक विद्याधर का राज्य था । देवराज इन्द्र के साथ उसका विरोध था। मेघवाहन ने अजितनाथ प्रभु की बड़ी भक्ति की। इससे राक्षसेन्द्र बहुत प्रसन्न हुआ। उसने मेघवाहन से कहा-"क्षस द्वीप में त्रिकूट नामक पर्वत है, उस पर लंका नामक नगरी है । तुम वहाँ जाओ, राज्य करो । वहाँ तुम्हारे लिए किसी भी प्रकार का उपद्रव एवं विघ्न नहीं होगा। दण्ड गिरि के नीचे विद्यमान पातालपुरी भी मैं तुम्हें प्रदान करता हूँ।" राक्षसेन्द्र के निर्देशानुसार मेघवाहन विद्याधर लंका नगरी में आया। वहाँ राज्य करने लगा। राक्षस द्वीप के अन्तर्वर्ती राज्य के आधिपत्य के कारण वे विद्याधर राक्षस कहे जाने लगे। उसी वंश में रत्नास्रव नामक राजा हुआ। रत्नास्रव का पुत्र रावण हआ। वह जब बच्चा था, तब उसके पिता ने नौ रत्नों का एक दिव्य हार उसे पहनाया । उसने नौओं रत्नों में नौ जगह रावण का मुख प्रतिबिम्बित हुआ । एक मुख वास्तविक था ही । वास्तविक और प्रतिबिम्बित दोनों मिलकर दश होते हैं। इस कारण वह दशमुख या दशानन के नाम से विख्यात हो गया।
एक बार का प्रसंग है, अष्टापद पर्वत पर भरत चक्रवर्ती द्वारा निर्मापित चैत्यों को लांघते समय रावण का विमान अवरुद्ध हो गया। वहाँ अष्टापद पर्वत वालिमुनि ध्यानस्थ थे। दशमुख ने यों अनुमानित किया कि उसका विमान वालि मुनि के कारण अवरुद्ध हुआ है। उसने अष्टापद पर्वत को ऊँचा उठा लिया। चैत्य को बचाने के लिए वालि मुनि ने पर्वत को दबा दिया। रावण नीचे दब गया। वह दशमुख रवया रुदन करने लगा, इस कारण उसका नाम रावण हुआ। वालि मुनि ने दबाव ढीला किया, जिससे रावण नीचे से निकल पाया।
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