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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-रामचरित : दशरथ जातक ४४३ मुझे मांगो। इसमें कोई बुराई की बात नहीं हैं । तापस ने यह स्वीकार किया। वह उस कन्या के साथ चल पड़ा। वह कन्या उसे एक वेश्या के पास ले गई। तापस वेश्या के चरणों में गिरकर बार-बार उसकी पुत्री की मांग करने लगा। राजा ने प्रच्छन्न रूप में उस सारी घटना को खुद अपनी आँखों से देखा। रानी ने जो कहा था, वह ठीक निकला। राजा ने तापस बंधवाकर उसकी भर्त्सना करते हुए देश से निकलवा दिया। राजा प्रतिबुद्ध हुआ, श्रावक-धर्म स्वीकार किया। तापस की लोगों में बहुत निन्दा हुई। उसका कूमरण हआ। मरकर वह भव-भ्रमण करता हुआ एक बार फिर मनुष्य-भव में आया। उस बार भी उसने तापसधर्म अंगीकार किया। वह मरकर अनलप्रम नामक देव के रूप में उत्पन्न हआ। उसने अपने पूर्व-भव का वैर-स्मरण कर यह उपसर्ग किया।"
यह वृत्तान्त सुनकर राम, सीता और लक्ष्मण ने केवली भगवान की भक्ति-पूर्वक स्तवना की। महालोचन नामक गरुडाधिप देव प्रकट हुआ। उसने उनको वरदान मांगने के लिए कहा।
. राम बोले-"कभी आपत्ति के समय आप हमारी सहायता कीजिये।"
वंशस्थल नगर का राजा सूरप्रभ वहां आया। उसने राम, सीता और लक्ष्मण का बड़ा सत्कार किया। वह पर्वत रामगिरि के नाम से विश्रुत हुआ। वहाँ से प्रस्थान कर राम, सीता और लक्ष्मण दण्डकारण्य पहुँचे। वहाँ कुटिया बनाई। उसमें वे सुख से रहने लगे। उस वन में जंगली गायों का दूध, बिना बोए उगा धान्य, आम, कटहल, अनार, केले आदि फल प्रचुर मात्रा में प्राप्त थे। एक दिन दो गगनचारी तपस्वी मुनि पधारे। सीता, राम और लक्ष्मण ने अत्यन्त मक्ति के साथ उन्हें भिक्षा दी। देवताओं ने दुंदुभि-निनाद किया और धन की वर्षा की । एक दुर्गन्धमय देह-युक्त पक्षी वहाँ आया । उसने मुनि को वन्दन किया। उस पक्षी का शरीर सुगन्धित एवं स्वस्थ हो गया। राम द्वारा पूछे जाने पर मुनि ने उसको पूर्वजन्म का वृत्तान्त इस प्रकार आख्यात किया
जटायुध गीध
"कण्डलपर नामक नगर था। वहाँ के राजा का नाम दण्डकी था। वह बहत उद्दण्ड था। उसकी रानी का नाम मक्खरि था। वह बडी विवेकशीला थी। श्रावक-धर्म का पालन करती थी। एक बार का प्रसंग है, एक मुनि वन में कायोत्सर्ग में स्थित थे। राजा ने मुनि के गले में एक मरा हआ साँप डाल दिया। मनि ने यह अभिग्रह किया कि जब तक मेरे गले में मरा हुआ साँप रहेगा, मैं कायोत्सर्ग समाप्त नहीं करूंगा, चालू रखूगा। वह दिन बीता, रात बीती, मुनि वैसे ही खड़ा रहा । दूसरे दिन राजा उस ओर आया। उसने मुनि को उसी अवस्था में खड़ा देखा। उसे अपने किये पर बड़ा पछतावा हुआ। वह मुनि का भक्त हो गया।
"रुद्र नामक एक तापस उस नगर में रहता था। उसने देखा, राजा साधुओं का भक्त हो गया है। इससे उसके मन में साधुओं के प्रति ईर्ष्या उत्पन्न हो गई। साधुओं के मरवाने के लक्ष्य से उसने साधु का वेश बनाकर राजा के अन्त:पुर में प्रवेश किया तथा वहाँ रानी का शील भ्रष्ट किया । राजा बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने सभी साधुओं को कोल्हू में पेरवाकर मरवा दिया। एक लब्धिधारी मुनि वहाँ आए । वे यह नहीं सह सके। उन्होंने तेजोलेश्या का प्रयोग किया। सारा नगर जलकर खाक हो गया। वह दण्डकारण्य नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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