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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३
"ब्राह्मण वसुभूति ने मरकर म्लेच्छ पल्ली में एक म्लेच्छ के घर जन्म लिया। मुनि उदित तथा मदित समेत शिखर की यात्रा पर थे। वे मार्ग में म्लेच्छ पल्ली होते हए निकले। पूर्वभव का वैर स्मरण कर उक्त म्लेच्छ उन्हें तलवार द्वारा मारने को उद्यत हुआ। मुनि द्वय ने सागार अनशन स्वीकार कर लिया। पल्ली पति ने करुणा कर उनको म्लेच्छ से बचाया। मुनिद्वय समेत शिखर पहुँचे । वहाँ अनशन द्वारा देह त्याग किया ।वे प्रथम देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुए। म्लेच्छ ने मरकर मनुष्य का भव पाया । उसने तापस दीक्षा स्वीकार की, अज्ञान-पूर्वक तप किया। फलस्वरूप वह दुष्ट परिणाम-युक्त ज्योतिष्क देव के रूप में उत्पन्न हुआ। मुदित और उदित के जीव अरिष्ट पुर के राजा प्रियबन्धु की रानी पद्माभा की कोख से पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। क्रमश: उनके नाम रत्नरथ तथा विचित्ररथ रखे गये। ब्राह्मण का जीव भी राजा की दूसरी रानी कनकामा की कोख से पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। उसका नाम अनुद्धर रखा गया। राजा प्रियबन्धु ने अपने बड़े पुत्र को राज्य दिया । स्वयं दीक्षा ग्रहण की। संयम का परिपालन करता हुआ वह यथासमय स्वर्गवासी हुआ । अनुद्धर स्वभाव से दुष्ट था। उसका अपने दोनों भाइयों के साथ बड़ा ईर्ष्या-भाव था । वह प्रजा को कष्ट देने लगा, लुटपाट करने लगा। राजा ने उसको अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। अनु द्धर ने निर्वासित होने पर तापस-दीक्षा स्वीकार की। रत्नरथ तथा विचित्ररथ ने भी श्रमण-दीक्षा अंगीकार की। अपना आयुष्य पूर्ण कर वे प्रथम देवलोक में उत्पन्न हुए। वहां से च्युत होकर वे सिद्धार्थ पुर के राजा क्षेमकर की रानी विमला की कोख से पुत्र रूप में जन्मे। उनके नाम कुलभूषण तथा देश भूषण रखे गए। राजा ने उनको विद्याध्ययन हेतु गुरुकुल में धोष नामक उपाध्याय के पास भेज दिया। पीछे से रानी ने कनकप्रभा नामक कन्या को जन्म दिया। राजकुमार बारह वर्ष बाद विद्याध्ययन सम्पन्न कर वापस लौटे, तब तक कनकप्रभा बड़ी हो गई थी। राजकुमारों को यह ज्ञान नहीं था कि वह उनकी बहिन है। उनका अनुमान था कि उनके निमित्त राजा किसी राजकुमारी को यहाँ ले आए हैं। उनके प्रति उनकी आसक्ति हो गई। बाद में जब उन्हें ज्ञात हुआ कि वह तो उनकी बहिन है, तो उन दोनों को अपने असत्-चिन्तन पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ और उन्हें संसार से वैराग्य उत्पन्न हो गया। दोनों ने सुव्रत सूरि नामक मुनि के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। राजा क्षेमंकर पुत्रों के दीक्षित हो जाने से उनके वियोग में बहुत दुःखित हो गया, खिन्न रहने लगा, अनशन पूर्वक आयुष्य पूर्णकर वह महालोचन नामक गरुड़ाधिप देव हुआ।
"तापस अनुद्धर अज्ञान तप करता रहा। वैसा करता हुआ वह एक बार कौमुदी नगर आया । वहाँ का राजा वसुधर तापस के प्रति भक्ति रखता था। उसकी रानी शुद्ध जिनधर्म की उपासिका थी। एक दिन की बात है, राजा तापस की प्रशंसा कर रहा था । रानी ने कहा-“ये अज्ञान पूर्वक तप करने वाले सच्चे साधु नहीं हैं । वास्तव में निर्ग्रन्थ ही सच्चे साधु होते हैं।" राजा बोला-"तुम दूसरों का उत्कर्ष सह नहीं सकती; इसलिए ऐसा कहती हो।" रानी ने कहा- "बहुत अच्छा, की जाए।" रानी ने अपनी पुत्री को रात के समय तापस के यहाँ भेजा। राजपुत्री ने तापस को नमस्कार किया और कहा कि मेरा कोई अपराध नहीं है तो भी मेरी माता ने मुझे घर से बाहर निकाल दिया है। मैं अब आपके शरण में आई हूँ। आप मुझे दीक्षित करें। अनुद्धर उसके सौन्दर्य पर मोहित हो गया। 'उसने उससे काम-याचना की। कन्या बोली- “ऐसा अकार्य मत करो। मैं अविवाहित कन्या हूँ। यदि तुम मेरी कामना करते हो तो तापस-धर्म का परित्याग कर मेरी माता से
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