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________________ तत्त्व : आचार: कथानुयोग ] कथानुयोग - रामचरित : दशरथ जातक ४३६ आश्चर्य हुआ । नगर में भवन तथा बड़े-बड़े प्रासाद थे । उन्होंने उसमें वर्षाकाल व्यतीत किया । एक दिन कपिल ब्राह्मण वन में घूम रहा था । उसकी इस नगरी पर निगाह पड़ी। एक स्त्री से नगरी का परिचय पूछा। वह स्त्री यक्षिणी थी । उसने कपिल को कहा - "यह राम की नगरी है । राम, सीता तथा लक्ष्मण सुखपूर्वक यहाँ निवास करते हैं। दीन, हीन, दरिद्रों को बहुत दान देते हैं, साधर्मिक बन्धुओं का बड़ा सम्मान करते हैं ।" I ब्राह्मण ने कहा - "बतलाओ, मुझे राम का दर्शन कैसे हो ?" यक्षिणी बोली - "रात के समय इस नगरी में कोई प्रविष्ट नही होता। नगर के पूर्वी द्वार के बाहर एक चैत्य है । तुम वहीं चले जाओ । भगवान् की भक्ति करो । मिथ्यात्व का परित्याग कर मुनियों से धर्म-श्रवण करो। इसी से तुम्हारा कल्याण होगा अभीष्ट सिद्ध होगा ।" ब्राह्मण को यक्षिणी की शिक्षा सुन्दर लगी । वह उसके कथनानुसार धर्माराधना करने लगा, श्रमणोपासक हो गया । ब्राह्मणी सहृदया थी । वह भी प्रतिबुद्ध हुई तथा श्रमणोपासका बन गई । एक दिन कपिल अपनी पत्नी के साथ राजभवन की ओर गया । वहाँ उसकी दृष्टि राम और लक्ष्मण पर पड़ी। वह वापस भागा । लक्ष्मण ने उसे बुलाया । वह डरता हुआ आया । राम, लक्ष्मण का अभिवादन किया और कहा- "मैं वही पापी हैं, जिसने आप लोगों के साथ बड़ा कठोरता पूर्ण व्यवहार किया था । " राम ने उसे मधुर शब्दों में कहा - "यह तुम्हारा दोष नहीं है, अज्ञान का दोष है । अब तो तुमने वीतराग-भाषित धर्म अपना लिया है । अत: तुम हमारे साधर्मिक बन्धु हो ।” तत्पश्चात् उन्होंने उसे तथा ब्राह्मणी को सम्मान भोजन कराया और उन्हें पर्याप्त धन देकर वहाँ से विदा किया। कुछ समय पश्चात् कपिल ने संयम पथ स्वीकार कर लिया, वह दीक्षित हो गया । वर्षाकाल व्यतीत हुआ । राम, सीता और लक्ष्मण वन की ओर जाने की तैयारी करने लगे । यक्ष ने राम को स्वयंप्रभ हार, सीता को चूड़ामणि हार तथा लक्ष्मण को कुंडल भेंट किए। एक वीणा भी भेंट की । अपने द्वारा संभावित अविनय आदि के लिए क्षमा याचना की । ज्यों ही राम बाहर निकले, वह नगरी इन्द्रजाल के सदृश अपने आप विलुप्त हो गई । वन को पार कर राम सीता और लक्ष्मण विजयापुरी नामक नगरी के समीप पहुंचे । त्रिवास हेतु एक वट के पास ठहरे। रात के समय लक्ष्मण ने वट के नीचे किसी वियोगिनी नारी का विलाप सुना । वह स्त्री कह रही थी- "वनदेवी ! मैं बड़ी अभागिन हूँ, इस जन्म मैं लक्ष्मण को पति के रूप में प्राप्त नहीं कर सकी, पर, मेरी उत्कट भावना है, आगामी भव में वे मुझे पति के रूप में अवश्य प्राप्त हों ।' यों कहकर वह स्त्री अपने गले में फाँसी का फंदा डालने लगी । लक्ष्मण अतिशीघ्र उसके पास पहुँचे, अपना परिचय दिया तथा फाँसी को काट डाला । लक्ष्मण उसे लेकर राम के के पास आये । सीता ने पूछा- 'किसे लाये हो ?" " | लक्ष्मण बोले- "यह आपकी देवरानी है ।" सीता द्वारा परिचय पूछे जाने पर उस कुमारिका ने कहा - "यहाँ समीप ही विजया पुरी नामक नगरी है, उसके राजा महीघर हैं। उनकी पटरानी का नाम इन्द्राणी है । मैं उनकी पुत्री हूँ। मेरा नाम वनमाला है । मैंने बाल्यकाल में एक दिन राज सभा में लक्ष्मण की कीर्ति सुनी । उनके पराक्रमशील व्यक्तित्व से मैं प्रभावित हुई। मैंने लक्ष्मण को अपने Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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