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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग — रामचरित : दशरथ जातक ४३५ हर के रूप में सुरक्षित रखा । वह वर भाज मुझ से मांग रही है-- मैं भरत को राज्य दूं । बेटा राम ! तुम्हारे होते मैं यह कैसे कर सकता हूँ ? मैं बहुत चिन्तित हूँ ।" राम ने कहा - "तात ! आप खुशी से भरत को राज्य दें, अपने वचन का पालन करें, मुझे इसमें जरा भी आपत्ति नहीं है । दशरथ ने भरत को बुलाया और उससे कहा- -" -"तुम वह राज्य लो ।" भरत ने उत्तर दिया- "मैं राज्य लेना नहीं चाहता, मुझे राज्य से कोई मतलब नहीं है । मैं तो दीक्षा लूंगा । आप मेरे बड़े भाई राम को राज्य दें ।" राम ने उसे कहा - "भरत ! मैं जानता हूँ, तुमको राज्य का किन्तु, अपनी माता का मनोरथ पूरा करने के लिए, अपने पिता के के लिए तुम्हें यह करना होगा ।" भरत ने कहा - " ज्येष्ठ भाई के रहते हुए मैं राज्य लूं, यह असंभव है ।' इस पर राम बोले – “मैं वनवास हेतु प्रयाण कर रहा हूँ । तुम राज्य ग्रहण करो, यह आदेश तुम्हें मानना ही होगा ।" कुछ भी लोभ नहीं है, वचन का पालन करने लक्ष्मण ने जब उपर्युक्त बात सुनी तो वह अपने पिता महाराज दशरथ के पास आया और उसने इसका बड़ा विरोध किया । राम ने लक्ष्मण को समझाया । शान्त किया । राम का वनवास राम और लक्ष्मण वनवास हेतु प्रस्थान करने लगे । सीता ने भी उनके साथ जाने का आग्रह किया। राम ने सीता को अयोध्या में रहने हेतु बहुत कहा-सुना, बहुत समझाया, किन्तु, सीता किसी भी तरह वहाँ रहने को सहमत नहीं हुई। तीनों महाराज दशरथ के पास गये, उनको प्रणाम किया, अपने अपराधों के लिए— भूलों के लिए क्षमा याचना की । दशरथ शोकवश रो रहे थे । राम ने कहा – “पुत्र ! तुम्हारा कोई अपराध नहीं है। यह तो मेरा ही तुम लोगों के साथ अनु. चित व्यवहार है । अब मैं इस मायामय संसार का त्यागकर दीक्षा ग्रहण करूंगा। तुम्हें जीवन में जो उचित जान पड़े, वैसा ही करते रहना । वनवास बड़ा विषम है, सदा जागरूक रहना ।" तत्पश्चात् राम माताओं से मिले, उन्हें आश्वस्त किया, ढाढ़स बंधाया तथा वन की ओर चल पड़े। उन्हें विदा देने हेतु राजा, परिजन, अमात्य, सामंत तथा प्रजाजन आँखों से आंसू भरकर साथ चले । राम का वियोग सभी के लिए बड़ा दुःसह था । राजपरिवार के सदस्य, रानियाँ तथा संभ्रांत नागरिक - सभी अत्यन्त व्यथित थे, को निर्वासन दिलाने वाली रानी कैकेयी के प्रति सबके मुख पर बड़ा रोष था, घृणा थी । राम, सीता और लक्ष्मण ने एक मन्दिर में रात को विश्राम किया, माता-पिता को वापस विदा किया । प्रातः शीघ्र उठकर भगवत्स्मरण कर, धनुष-बाण धारण कर पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान कर गए। सामंत तथा संभ्रांत नागरिक - वृन्द कुछ गाँवों एवं नगरों को पार करने तक राम के साथ रहे। राम आदि चलते-चलते गंभीरा नदी के तट पर पहुँचे । सामंत प्रभृति साथ चल रहे लोगों को राम ने वापस लौटा दिया तथा सीता और लक्ष्मण के साथ नदी पार की। फिर दक्षिण की ओर चल पड़े । महाराज दशरथ ने भूतशरण नामक मुनि के पास प्रव्रज्या ले ली। वे कठोर तपस्या करने लगे । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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