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________________ ४३४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ राम उनके पास आये, पिता की उद्विग्नता तथा व्यथा का कारण पूछा । दशरथ ने सारी स्थिति से राम को अवगत कराया। उन्होंने कैकेयी को अपने द्वारा वरदान दिए जाने का वृत्तान्त बताया वरदान की कथा "तुम्हारे जन्म के पूर्व की घटना है । एक बार नारद मुनि मेरे पास आए और बोले कि एक महत्त्वपूर्ण बात कहता हूँ, लंकापति रावण ने ज्योतिषी से पूछा- मैं लोक में सबसे अधिक वैभवशाली, बलशाली तथा प्रभावशाली हूँ। देवगण, दानववृन्द सभी मेरी सेवा में रहते हैं। बतलाओ, ऐसा भी कोई है, जिससे मुझे कभी कोई खतरा है ?" ज्योतिषी ने कहा- लंकापते ! अयोध्या-नरेश दशरथ के पुत्रों से, जनक-पुत्री सीता के प्रसंग को लेकर आपके लिए बड़ा संकट आशंकित है।" रावण ने तुरन्त अपने भाई विभीषण को बुलाया और कहा--"दशरथ के होने वाले पुत्रों और पुत्री से मुझे संकट होगा, ज्योतिषी का यह कहना है । तुम अयोध्या जाकर दशरथ का वध करो तथा मिथिला जाकर जनक का वध करो, मेरा आशंकित संकट दूर करो। दशरथ और जनक के न रहने से मेरे संकट का मूल ही नष्ट हो जायेगा।" नारद ने बताया-“विभीषण के यहाँ पहुँचने से पहले ही मैंने एक सामिक के नाते आपको सावधान कर दिया है। जनक को भी सावधान कर दिया है।" ऐसा कहकर नारद चले गए। "मैंने मंत्रियों से परामर्श किया। उनकी सम्मति से मैंने अपनी लेप्यमयी मूर्ति-प्रतिकृति तैयार करवाई। वह ठीक मेरे सदृश ही सजीव जैसी लगती थी। उसमें लाक्षारस आदि ऐसे पदार्थ संयोजित किये गये कि अग-भंग किये जाने पर, काटे जाने पर रक्त जैसा तरल पदार्थ भी उससे बहे । जनक ने भी अपनी रक्षा के लिए वैसा ही किया। दोनों अपने स्थान पर अपनी-अपनी प्रतिकृतियाँ रखवाकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार कु छ सयय के लिए देशान्तर चले गए। "कछ समय बाद विभीषण मिथिला और अयोध्या आया। हम दोनों की प्रतिकृतियाँ नष्ट कर दीं। उसे विश्वास हो गया, उसने हम दोनों का वध कर दिया है। उसने अपने बड़े भाई रावण को जाकर यह संवाद दिया तो रावण निश्चिन्त हो गया। "मैं देश का भ्रमण करता हुआ कौतुकमंगल नामक नगर में पहुँचा। वहाँ के राजा का नाम शुभमति था। उसकी रानी का नाम पृथिवी था। उनके कैकेयी नामक पुत्री थी। कैकेयी का स्वयंवर रचा गया था। तदर्थ विशाल मंडप बना था । अनेक राजा मंडप में उपस्थित थे। मैं भी एक स्थान पर जाकर बैठ गया। कैकेयी ने अपने हाथ में वरमाला ली। वह स्वयंवर मंडप में आई। उसने सभी राजाओं को छोड़कर मेरे गले में वरमाला डाल दी। स्वयंवर में उपस्थित राजा यह देखकर बहुत क्रोधित हुए। उनके साथ चतुरंगिणी सेनाएं थीं। उन्होंने युद्ध छेड़ दिया। राजा शुभमति भागने लगा। यह देखकर मैं रथ पर आरूढ़ हुआ । कैकेयी सारथि बनी। युद्ध क्षेत्र में मैंने बाणों की भीषण वर्षा कर समस्त राजाओं को पराजित कर दिया। उपद्रव शांत हो गया। कैकेयी के साथ मेरा पाणिग्रहण हुआ। कैकेयी ने युद्ध-क्षेत्र में वीरता पूर्वक सारथि के रूप में मेरा साथ दिया था, इससे मैं बहुत प्रसन्न था। मैंने उससे वर मांगने का आग्रह किया । कैकेयी ने वर स्वीकार किया, पर, उसे धरो Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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