SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 493
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-रामचरित : दशरथ जातक ४३३ स्थित हुआ । भामंडल तथा परिजन वृन्द साथ थे। वहाँ स्थित मुनि सर्वभूतहित को वन्दननमन किया, दीक्षा ग्रहण की। भामंडल बड़ा दानशील था। वह याचकों को प्रचुर दान देने लगा। जो भी कोई याचना लेकर आता, वह सन्तुष्ट होकर जाता। भामंडल का सर्वत्र यश फैल गया। एक दिन का प्रसंग है, मगध-जन तथा बन्दी-जन जनक-पुत्र भामंडल की विरुदावली गा रहे थे। रात्रि का अंतिम प्रहर था। सीता अपने महल में सोई थी। उसने जब 'जनक-पुत्र' शब्द सुना तो सहसा चौंकी-यह कौन है, मेरा भाई तो जन्मते ही अपहृत कर लिया गया था। वह इस विषय पर विविध प्रकार से ऊहापोह करती रही। प्रातःकाल हो गया। राम के साथ बगीचे में गई। महाराज दशरथ भी वहाँ आ गए। सब चन्द्रगति मुनि की सन्निधि में बैठे। मागध-जनों द्वारा की गई विरुदावली का प्रसंग उपस्थित हुआ। चन्द्रगति मुनि ने उससे सम्बद्ध सारा वृत्तान्त बतलाया। जनक के पुत्र भामंडल का परिचय प्राप्त कर सभी बहत हर्षित हुए। भामंडल की प्रसन्नता की तो सीमा ही नहीं थी। राम द्वारा भामंडल का स्वागत राम ने भामंडल का स्वागत किया, अयोध्या नगरी में लाए। भामंडल ने पवनगति नामक विद्याधर को अपने माता-पिता जनक एवं वैदेही को बधाई देने तथा विमान में ठाकर अयोध्या लाने हेतु मिथिला भेजा। पवनगति विद्याधर वायु-वेग से वहाँ गया, जनक एवं वैदेही को विमान में बिठाकर लाया: भामंडल ने अपने माता-पिता के चरणों में सादर सविनय प्रणाम किया, उन्हें सब वृत्तान्त सुनाया। सब लोग परस्पर मिलकर बहत प्रसन्न हए। दशरथ के स्नेहपूर्ण आग्रह के कारण राजा जनक तथा भामंडल आदि पाँच दिन तक अयोध्या में रुके। फिर मिथिला गये। मिथिला में सर्वत्र हर्ष छा गया। आनन्दोत्सव मनाये जाने लगे। भामंडल कुछ दिन अपने माता-पिता के पास मिथिला में रहा । फिर अपनी राजधानी रथनूपुर चला गया। कैकेयी द्वारा वरान-पूर्ति की मांग एक दिन की बात है, राजा दशरथ अपने महल में सोये थे। रात्रि का अंतिम प्रहर था। वे जग गये। उनके मन में चिन्तन चलने लगा–विद्याधर चन्द्रगति वास्तव में धन्य है, जिसने सांसारिक वैभव का परित्यागकर संयम-ग्रहण कर लिया, जो आत्म साधना में लग गया। मैं कितना अभागा हूँ, अब भी गृहस्थी के बन्धन में जकड़ा हूँ। आयुष्य क्षण-प्रतिक्षण घटता जा रहा है, कौन जाने कब क्षीण हो जाए, जीवन लीला समाप्त हो जाए। इसलिए अब मुझे भी ज्येष्ठ कुमार रामचन्द्र को राज्याभिषिक्त कर संयम स्वीकार कर लेना चाहिए । मेरे लिए यही कल्याणकारी है। प्रातःकाल हुआ। राजा दशरथ ने सबके सम्मुख अपना विचार उपस्थित किया। राजा का विचार सभी को बहुत सुन्दर तथा उपयुक्त प्रतीत हुआ। सबने समर्थन किया। राम के राज्याभिषेक का मुहूर्त देखा जाने लगा इतने में रानी कैकेयी राजा के पास उपस्थित हई। वह जानती थी, राम तथा लक्ष्मण के रहते मेरा पूत्र भरत राजा नहीं हो सक लिए राजा द्वारा दिया हुआ वरदान, जिसे उसने अमानत के रूप में रख छोड़ा था, उस समय राजा से मांगा। उसने कहा- देव ! राम को वनवास दें तथा कृपा कर भरत को राज्य दें।" ज्योंही दशरथ ने सुना, वे अत्यन्त चिन्तित हो गये। उनके मन में विषाद छा गया। For Private & Personal Use Only Jain Education International 2010_05 www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy