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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३
सबको बुलाने के लिए पृथक्-पृथक् परिचारक भेजे गए। रानियाँ उत्सव-स्थल पर आ गई। महारानी कैकेयी के पास तब तक उत्सव का आमंत्रण नहीं पहुंचा था । वह और प्रतीक्षा नहीं कर सकी। उसने इसे अपना अपमान समझा। वह अत्यन्त कुपित हो उठी और आत्महत्या करने को तैयार हो गई। दासी ने कोलाहल किया। राजा दशरथ स्वयं वहाँ पहुँचे। उन्होने रानी को ऐसा करने से रोका। इतने में ही रानी को आमंत्रण देने हेतु भेजा गया वृद्ध पुरुष वहाँ पहुँच गया। उसने हाथ जोड़ कर निवेदन किया-"क्षमा करें, वृद्ध हूँ, पहुँचने में विलंब हो गया।"
राजा दशरथ ने उस वृद्ध की अवस्था पर चिन्तन किया, अनुभव किया-कभी यह तरुण था, बड़ा सशक्त था, इसकी गति में त्वरा थी। आज वह सब चला गया है। यह अशक्त हो गया है । यही तो मानव-जीवन का स्वरूप है । राजा ने यह सब अपने पर घटित किया। उसमें वैराग्य का उदय हुआ। राजा को सूचना मिली, उद्यान में सर्वभूतहित नामक मुनि समवसत हुए हैं, बड़े त्यागी हैं, चार ज्ञान के धारक हैं। राजा अपने परिवार के साथ मुनिवर के दर्शन-वन्दन हेतु गया, वन्दन-नमन किया। धर्मोपदेश सुना। राजा का हृदय वैराग्य से उदभासित हो गया। वह वापस महल में लौटा। उसने मन-ही-मन निश्चय किया, उपयुक्त अवसर होते ही मैं संयभ-ग्रहण करूंगा।
ससैन्य भामंडल का मिथिला की ओर प्रयाण : प्रत्यावर्तन
उधर रथनपुर नगर में जब भामंडल को यह विदित हुआ कि सीता का राम के साथ पाणिग्रहण हो गया है तो वह बहुत दुःखित हुआ। उसने निश्चय किया कि जैसे भी हो, मै सीता को प्राप्त करूंगा। उसने अपनी सेना ली और मिथिला की दिशा में रवाना हुआ। मार्ग में विदर्भा नामक नगरी आई । वह वहाँ रुका। वहाँ के दृश्य देखे । उन पर ऊहापोह किया । वहाँ के दृश्य उसे पूर्व-अनूभूत से प्रतीत हुए। उसे जाति-स्मरण ज्ञान हो गया । अपना प.जन्म उसे याद हो आया। वर्तमान भव भी बह जान गया। उसे ज्ञात हो गया कि सीता उसकी सहोदरा भागिनी है। सीता के प्रति अपनी आसक्ति के लिए उसे बड़ा पश्चाताप
आ। उसके मन में निवेद उत्पन्न हुआ। वह अपनी सेना सहित वापस रवाना हो गया। रथन पूर नगर में पहुँचा। विद्याधर राज चन्द्रगति ने उसे एकान्त में ले जाकर वापस लौट आने का कारण पूछा। भामंडल ने बताया-"तात ! मुझे जाति-स्मरण-ज्ञान हो गया। मैं अपने पूर्व-भव में विदर्भा नगरी का राजकुमार अहिमंडल था। मुझसे एक बड़ा बूरा कार्य हआ। निर्लज्जता-पूर्वक मैंने एक ब्राह्मणी का अपहरण किया। मैं मरकर राजा जनक के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। सीता मेरी सहोदरा बहिन है । पूर्वभव के शत्रुभाव के कारण देव ने मेरा अपहरण किया । मुझे शिला पर पटककर मार देना चाहता था, पर, मन में करुणाभाव उदित होने के कारण वैसा नहीं कर सका और मुझे वैताढ्य पर्वत पर छोड़कर चला गया। तब मैं आपको प्राप्त हुआ। आपने मुझे पुत्र-रूप में स्वीकार किया। मैं बड़ा हुआ। भज्ञान जनित मोह-वश मैंने अपनी बहिन की कामना की।
भामंडल का राजतिलक
विद्याधरराज चंद्रगति ने जब भामंडल से यह घटनाक्रम सुना तो उसके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसने भामंडल का राजतिलक किया। वह अयोध्या के उद्यान में उप
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