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तत्त्व : आचार : कथामुयोग ]
कथानुयोग-रामचरित : दशरथ जातक
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८. रामचरित : दशरथ जातक
भारतीय वाङ्मय में राम प्रमुख चरितनायक के रूप में रहे हैं। उन्हें उद्दिष्ट कर अनेक भाषाओं में काव्य, महाकाव्य, नाटक आदि सजित हुए।
जैन-वाङमय के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश तथा अनेक प्रादेशिक भाषाओं में राम पर बहत रचनाएँ हई. जहाँ उन्हें एक आदर्श नायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। विमल सरि (लगभग प्रथम शती) द्वारा प्राकृत में रचित पउमचरियं संभवतः प्राचीनतम रामकाव्य है, जो उत्तर काल में विविध भाषाओं में प्रणीत रामसम्बन्धी काव्यों, पुराणों तथा आख्यानकों का उपजीवक रहा है । जैन-परंपरा में राम का एक नाम पद्म था। प्राकृत में पउम का 'पडम' रूप होता है। पउमचरियं, पउमचरिउ, पद्मपुराण इत्यादि अभिधानों का यही कारण है।
अयोध्यापति दशरथ के यहाँ राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न का जन्म, मिथिला राजा जनक की पुत्री सीता के साथ राम का विवाह, कैकेयी द्वारा दशरथ से प्राप्त वरदान की पूर्ति के अनुरूप राम का वन-गमन, अनुज लक्ष्मण एवं पत्नी सीता का सहगमन, भरत द्वारा भाई को वापस लौटाने का प्रयास, लंकापति रावण द्वारा सीता का हरण, सीता की खोज, रावण से युद्ध, रावण का वध, अयोध्या-आगमन, सीता का निर्वासन, अन्ततः सीता द्वारा प्रव्रज्या आदि घटनाएँ पूर्व-भव आदि से सम्बद्ध अनेक घटनाक्रमों के साथ उक्त कृतियों में सविस्तार वर्णित हैं। यों जैन-वाङमय में राम-काव्य-परंपरा का बड़ा विकास हुआ है।
बौद्ध-वाङ्मय के अन्तर्गत दशरथ जातक में राम का चरित है। वहाँ राम, लक्ष्मण एवं भरत का दशरथ के पुत्र एवं सीता का पुत्री के रूप में उल्लेख है।
रानी द्वारा प्राप्त वरदान के अन्तर्गत राम का वन-गमन, लक्ष्मण तथा सीता का अनुगम, भरत द्वारा राम को वापस लौटाने हेतु प्रयास आदि कतिपय मुख्य-मुख्य घटनाएँ भावात्मक दृष्टि से जैन-रामचरित के साथ मिलती हैं, किन्तु, बहुत संक्षिप्त हैं।
जैन रामायण में जहाँ दशरथ अयोध्या के राजा के रूप में वर्णित हैं, वहाँ दशरथ जातक में उन्हें वाराणसी-नरेश बतलाया गया है ।
सीता-हरण आदि प्रसंग दशरथ जातक में नहीं है। राम वनवास की अवधि समाप्त होने के पश्चात् वापस वाराणसी आते हैं। राम का आगे वाराणसी के राजा तथा सीता का रानी के रूप में उल्लेख है। भाई-बहिन के बीच वैवाहिक सम्बन्ध का यह प्रसंग भारत की तत्कालीन सामाजिक परम्परा की ओर इंगित करता है. जब समाजगत व्यवर मर्यादाओं की मूल्यवत्ता, जो युगानुरूप परिवर्तित होती रहती है, के अनसार वह (भाईबहिन का विवाह-सम्बन्ध) अस्वीकृत एवं अवैध नहीं था। शाक्य-वंश में वैसा संभवत: दीर्घकाल पर्यन्त प्रचलित रहा हो। वैसे जैन-परंपरानुसार प्रागैतिहासिक काल में यौगलिक व्यवस्था के अन्तर्गत वह स्वीकृत था ही, जब एक दम्पति के एक पुत्र एवं एक पुत्री केवल दो सन्तानें होती थीं, जो तरुण होने पर पति-पत्नी के रूप में परिणत हो जातीं।
प्रतीत होता है, राम का चरितनायक के रूप में बौद्ध-परम्परा में अधिक विकास
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