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________________ ४२६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ उनके विपाक से, फल से संलग्न था, किन्तु भगवान् तथागत की शरण लेने से आज मेरा वह कर्म ऋण चुक चुका है। मैं शान्ति से खाता हूँ - जीता हूँ । “जो मनुष्य बाल -- अज्ञानयुक्त, दुर्गतियुक्त होते हैं, वे प्रमादी बने रहते हैं, सदा आलस्य में पड़े रहते हैं । जो मेधावी प्रज्ञाशील पुरुष होते हैं, वे अप्रमाद या जागरूकता की उत्कृष्ट धन के सदृश रक्षा करते हैं । "प्रमादी मत बनो, काम भोग में आसक्त मत रहो । जो प्रमादशून्य होकर ध्यानरत रहता है, वह परम सुख प्राप्त करता है । " मेरी यह मन्त्रणा, परामर्श दुर्मन्त्रणा- - अनुचित मन्त्रणा या दुष्परामर्श - अनुचित परामर्श नहीं है । मैंने निर्वाण का साक्षात्कार कर लिया है, बुद्ध-शासन को प्राप्त कर लिया है, विद्याओं को प्राप्त कर लिया है ।' 119 १. आधार - मज्झिमनिकाय २.४.६, अंगुलिमाल सुत्तन्त ३५३-३५७ । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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