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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
उनके विपाक से, फल से संलग्न था, किन्तु भगवान् तथागत की शरण लेने से आज मेरा वह कर्म ऋण चुक चुका है। मैं शान्ति से खाता हूँ - जीता हूँ ।
“जो मनुष्य बाल -- अज्ञानयुक्त, दुर्गतियुक्त होते हैं, वे प्रमादी बने रहते हैं, सदा आलस्य में पड़े रहते हैं । जो मेधावी प्रज्ञाशील पुरुष होते हैं, वे अप्रमाद या जागरूकता की उत्कृष्ट धन के सदृश रक्षा करते हैं ।
"प्रमादी मत बनो, काम भोग में आसक्त मत रहो । जो प्रमादशून्य होकर ध्यानरत रहता है, वह परम सुख प्राप्त करता है ।
" मेरी यह मन्त्रणा, परामर्श दुर्मन्त्रणा- - अनुचित मन्त्रणा या दुष्परामर्श - अनुचित परामर्श नहीं है । मैंने निर्वाण का साक्षात्कार कर लिया है, बुद्ध-शासन को प्राप्त कर लिया है, विद्याओं को प्राप्त कर लिया है ।'
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१. आधार - मज्झिमनिकाय २.४.६, अंगुलिमाल सुत्तन्त ३५३-३५७ ।
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