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________________ ४२२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ इस महावन में ऐसे महाश्रमण के दर्शन का सुअवसर मुझे मिला, मैं उन पापों का परित्याग कर दूं, जिन्हें चिर काल से करता आ रहा हूँ। अंगुलिमाल की प्रव्रज्या अंगुलिमाल अन्तःप्रेरित हुआ। उसने अपनी तलवार, दूसरे शस्त्र खड्डे में, प्रपात में, नाले में फेंक डाले। वह भगवान् के चरणों में आया, वंदना की, निवेदन किया"भन्ते ! मुझे प्रव्रज्या दें।" परम कारुणिक, महान् ऋषि-महान् द्रष्टा, मनुष्यों तथा देवताओं के शास्ता भगवान् तथागत ने बड़े करुणापूर्ण शब्दों में अंगुलिमाल से कहा- "आओ भिक्षु !" भगवान् की यह वाणी ही अंगुलिमाल की प्रव्रज्या थी। भगवान् तथागत ने आयुष्मान् अंगुलिमाल को अपना अनुगामी भिक्षु बनाया। भगवान् श्रावस्ती आये। वहाँ अनाथपिण्डिक के जेतवन नामक उद्यान में ठहरे। प्रसेनजित् का अभियान उस समय कोशल नरेश के राजप्रासाद के द्वार पर लोगों की भीड़ इकठटी थी, कोलाहल था। लोग जोर-जोर से राजा को संबोधित कर कह रहे थे-"राजन् ! तुम्हारे राज्य में अंगुलिमाल नामक डाकू है। उसने गाँवों को, निगमों को, जनपद को उजाड़ दिया है। वह मनुष्यों की हत्या कर उनकी अंगुलियों की माला धारण करता है । राजन् ! उसे नियन्त्रित करो।" राजा प्रसेनजित् ने पांच सौ अश्वारोही सैनिक अपने साथ लिये। दोपहर को उसने श्रावस्ती से प्रस्थान किया। जिधर जेतवन उद्यान था, गया। जितनी दूर तक वाहन जाता था, उतनी दूर तक वाहन द्वारा गया। जहाँ वाहन नहीं जाता था, वहाँ वाहन से उतरा, पैदल चला, जहाँ भगवान् तथागत थे, वहाँ गया। तथागत का प्रश्न राजा ने भगवान् को वन्दन, अभिवादन किया। ऐसा कर वह एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे राजा प्रसेनजित् को भगवान् तथागत ने कहा---'राजन् ! क्या तुम पर मगध नरेश श्रेणिक बिम्बसार क्रुद्ध हुआ है ? क्या वैशाली के लिच्छवि तुम पर ऋद्ध हुए हैं ? क्या तुमसे विरोध रखने वाले राजा तुम पर क्रुद्ध हुए हैं ? जो तुम इस प्रकार चले हो?" प्रसेनजित् बोला-'भन्ते ! न मुझ पर मगध नरेश श्रेणिक बिम्बसार क्रुद्ध है, न वैशाली के लिच्छवि ही ऋद्ध हुए हैं और न मुझसे विरोध रखने वाले राजा ही मुझ पर क्रुद्ध हैं । भन्ते ! मेरे राज्य में भयानक रक्त-रंजित हाथों वाला, निरन्तर मारकाट में लगा रहने वाला दयाहीन अंगुलिमाल नामक डाकू है । मैं उसी के निवारण हेतु जा रहा हूँ।" भगवान् बोले-'राजन् ! यदि तुम अंगलिमाल को दाढ़ी-मूंछ मुंडाये, गेरुए वस्त्र पहने, गृह-त्याग किये, प्रव्रज्या ग्रहण किये प्राणि-वध से, चोरी से, असत्य से विरत हुए, दिन में एक बार भोजन करने वाले, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, शील का आचरण करने वाले धर्मनिष्ठ के रूप में देखो तो तुम क्या करो?" ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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