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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग--अर्जुन मालाकार : अंगुलिमाल ४२१ माल डाक रहता है। उसने गाँवों को निगमों को एवं जनपद को उजाड़ डाला है। वह मनुष्यों की निर्मम हत्या कर उनकी अंगुलियों की माला धारण करता है। श्रमण ! इस रास्ते से बीस-बीस, तीस-तीस, चालीस-चालीस, पचास-पचास मनुष्य एकत्र होकर जाते हैं, फिर भी वे उससे बच नहीं पाते।" उनके यों कहने पर भी भगवान् मौन धारण किये अपने रास्ते पर आगे बढ़ते रहे। उन ग्वालों, चरवाहों, किसानों तथा पथिकों ने भगवान् को दूसरी बार फिर वैसा कहा, तीसरी बार फिर वैसा कहा, पर भगवान् उस ओर कुछ भी ध्यान दिये बिना मौन-भाव से अपने मार्ग पर गतिशील रहे। अंगुलिमाल की स्तब्धता डाकू अंगुलिमाल की दूर से ही भगवान् तथागत पर दृष्टि पड़ी। उनको बेधडक आते देखकर उसे बड़ा अचरज हुआ। वह मन-ही-मन कहने लगा, इस मार्ग से दस, बीस, तीस, चालीस, पचास पुरुष भी चलते हैं, आते हैं, वे भी मेरे हाथ से नहीं बच पाते । यह श्रमण अद्वितीय -एकांकी आगे बढ़ा आ रहा है, मानो मेरा यह अपमान करना चाहता हो, क्यों न मैं इसकी हत्या कर दूं। यह सोचकर अंगुलिमाल ने अपनी तलवार, ढाल सम्भाली, धनुष पर बाण चढ़ाया और वह भगवान् की तरफ चला । तथागत ने अपनी ऐसी योग-ऋद्धि प्रकट की कि डाकू अंगुलिमाल पूरी तेजी से दौड़कर भी भगवान् तक नहीं पहुँच सका, जो धीमी चाल से चल रहे थे। आश्चर्यान्वित अपनी यह दशा देखकर अंगुलिमाल विचार करने लगा-यह कैसा आश्चर्य है ! मैं पहले दौड़ते हुए हाथी का पीछा कर पकड़ लेता था, घोड़े का पीछा कर पकड़ लेता था, रथ का पीछा कर पकड़ लेता था, हरिण का पीछा कर पकड़ लेता था, किन्तु, मन्द गति से चलते हुए इस श्रमण तक पूरी तेजी से दौड़कर भी नहीं पहुंच पाता। तथागत के साथ पालाप अंगुलिमाल खड़ा हुआ और भगवान् से बोला—स्थित रहो-खड़े रहो।" भगवान् ने कहां-"अंगुलिमाल ! मैं तो स्थित हूँ, तुम भी स्थित हो जाओ।" यह सुनकर डाकू अंगुलिमाल सोचने लगा- शाक्य-वंश में उत्पन्न श्रमण सत्यभाषी -सच बोलने वाले, सत्य प्रतिज्ञ - अपनी प्रतिज्ञा को सचाई से निभाने वाले होते हैं, किन्तु यह श्रमण तो चल रहा है और कहता है, मैं स्थित हूँ। मैं इस सम्बन्ध में क्यों नहीं प्रश्न करूं कि तुम ऐसा क्यों कहते हो ? यह सोचकर अंगुलिमाल ने भगवान् से कहा-"श्रमण ! तुम तो जा रहे हो, चल रहे हो, फिर कहते हो कि मैं स्थित हैं, खड़ा हूँ, मुझे तुम अस्थित कहते हो । श्रमण ! मैं तुमसे पूछता हूँ, यह सब तुम कैसे कहते हो?" भगवान् ने कहा- "अंगुलिमाल ! मैं जगत् के समग्र प्राणियों की हिंसा से विरत हैं; इसलिए मैं स्थित हूँ। तुम प्राणियों की हिंसा से अविरत हो, असंयत हो; इसलिए तुम अस्थित हो।" भगवान् के वचन से डाकू अंगुलिमाल का हृदय परिवर्तित हो गया। उसने सोचा ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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