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________________ तत्त्व : आचार : कथा तुयोग ] कथानुयोग - अर्जुन मालाकार : अंगुलिमाल ४१६ आदक्षिण- प्रदक्षिणा की, वन्दन - नमस्कार कर वह बोला - " भगवन् ! मुझे निन्न्रथ-प्रवचन में श्रद्धा है, विश्वास है । निर्ग्रन्थ-प्रवचन मुझे प्रिय है, रुचिकर है । वह तथ्य है, सत्य है, मैं आपसे निर्ग्रन्थ-दीक्षा -- प्रव्रज्या स्वीकार करना चाहता ।” भगवान् ने कहा – “देवानु प्रिय ! जिससे तुम्हारी आत्मा में सुख उपजे, वैसा ही करो। इसमें विलम्ब मत करो ।" तब अर्जुन मालाकार उत्तर-पूर्व दिशा-भाग में ईशान कोण में गया, स्वयं अपने मस्तक के केशों का पांचमुष्टिक लुञ्चन किया और अनगार की भूमिका में संप्रतिष्ठ हुआ, संयम व तप के पथ पर आरूढ़ हुआ । द्विदैवसिक तपोमय अभिप्रह जिस दिन अर्जुन मालाकार ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी, उसी दिन से उसने भगवान् महावीर को वन्दन नमन कर यह अभिग्रह स्वीकार किया कि मैं आज से बेले-बेले तप द्वारा दो-दो दिनों के अनशन – उपवास द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ - आत्म-भाव में रमण करता हुआ धार्मिक जीवन जीऊंगा । अपने इस अभिग्रहिक संकल्प के अनुसार मालाकार अर्जुन, जो अब श्रमण अर्जुन था, विचरने लगा । उसका समस्त जीवन-क्रम बड़ा तपोमय हो गया । द्विदिवसीय उपवास के पारणे के दिन वह पहले पहर में स्वाध्याय करता, दूसरे पहर में ध्यान करता और तीसरे पहर में भिक्षा हेतु राजगृह नगर में घूमता । लोगों द्वारा भर्त्सना : उत्पीड़न श्रमण अर्जुन को राजगृह में उच्च, नीच, मध्यम कुलों में भिक्षार्थ भ्रमण करते देखकर राजगृह के अनेक स्त्री, पुरुष, बालक, तरुण, वृद्ध - विभिन्न नागरिक उसकी भर्त्सना करने लगते । कोई कहता - इसने मेरे पिता का वध किया है । कोई कहता - इसने मेरी माता की हत्या की है। इसने मेरे भाई को मारा है, बहिन को मारा है, पुत्रवधू को मारा है । पुत्री को मारा है, सम्बन्धियों को मारा है; यों कह-कह कर अनेक व्यक्ति उसे गाली देते, उसका अपमान करते, तिरस्कार करते, उसकी अवहेलना करते, निन्दा करते, गर्हा करते, कोई उसे धमकाता, कोई तर्जना देता, ईंट, पत्थर, लकड़ी आदि से ताड़ित करता । सहिष्णुता की पराकाष्ठा कितना विलक्षण परिवर्तन अर्जुन में हुआ, कभी क्रोधानल से धधकता अर्जुन आज अत्यन्त शान्त था, निर्वैर और निद्वेष था । वह गालियाँ, अपमान, तिरस्कार, अवहेलना, निन्दा, गर्हा, प्रताड़ना, तर्जना, मार, प्रहार — सब समत्व-भाव के साथ सहता जाता । वह इतना सहिष्णु एवं उदात्त हो गया था कि इन कष्टों को, परिषहों को कर्म • निर्जरण का हेतु समझ कर अपने को लाभान्वित मानता, उपकृत मानता । ऐसी स्थिति में भिक्षाटन करते हुए श्रमण अर्जुन को कभी अपेक्षित भिक्षा मिलती, कभी नहीं मिलती। कभी भोजन मिलता तो पानी नहीं मिलता, कभी पानी मिलता तो भोजन नहीं मिलता। किन्तु, श्रमण अर्जुन तितिक्षा - मुमुक्षा- भाव से यह सब सहर्ष सहता । जैसा, जितना थोड़े बहुत परिमाण में प्रासुक आहार पानी प्राप्त होता, उसमें वह जरा भी Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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