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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३
भगवान महावीर का राजगृह-पदार्पण
बड़ा उत्तम संयोग बना, उस समय श्रमण भगवान महावीर गजगह पधारे। नगरोपकण्ठ में अवस्थित गुणशील चैत्य में विराजे। नगर में चर्चा चली--स्वयं सम्बुद्ध, तीर्थकर, धर्म-तीर्थ प्रवर्तक, परमपुरुषोत्तम भगवान महावीर का यहाँ पदार्पण हुआ है । देवानुप्रियो ! भगवान् के नाम श्रवण करना भी अत्यन्त सुफलप्रद है, फिर उनके दर्शन करने, उन्हें वन्दन करने, नमन करने, उनकी स्तवना करने एवं पर्युपासना करने का तो कहना ही क्या ! उनके आर्य- सद्गुण-निष्पन्न, सद्धर्ममय एक सुवचन का श्रवण भी बहुत बड़ी बात है, फिर विपुल- विस्तृत अर्थ के ग्रहण की तो बात ही क्या ? |
लोग इस प्रकार चर्चा तो कर रहे थे, किन्तु, अर्जुन मालाकार के भय से किसी को यह साहस नहीं होता था कि वह भगवान की सन्निधि में जाए, उनके चरणों में अपनी श्रद्धा, भक्ति समर्पित करे।
भगवान के दर्शनार्थ सुदर्शन की उत्कण्ठा
सुदर्शन ने लोगों के मुंह से भगवान् महावीर के पावन पदार्पण की बात सुनी, उसके मन में यह भाव जगा, संकल्प उत्पन्न हुआ-भगवान् राजगृह में पधारे हैं, गुणशील चैत्य में विराजे हैं, मुझे चाहिए, मैं उनके दर्शन करने, उनको वन्दन-नमन करने जाऊँ।
माता-पिता से निवेदन
सुदर्शन अपने माता-पिता के पास गया और उनसे कहा-"कल्याणमय, मंगलमय, दिव्य द्युतिमय, परम उपास्य भगवान् महावीर के दर्शन हेतु, उन्हें वन्दन-नमन करने हेतु, उनका सत्कार-सम्मान करने हेतु, उनकी पर्यपासना करने हेतु मैं जाने को उत्कंठित हूँ, कृपया आज्ञापित करें।"
माता-पिता ने कहा-"पुत्र ! राजगह नगर के बाहर रौद्र, चंड, विकराल अर्जुन मालाकार प्रतिदिन छः पुरुषों तथा एक स्त्री की हत्या करता घूम रहा है; इसलिए तुम्हें नगर से बाहर जाने की हम कैसे आज्ञा दें। अच्छा यही है, तुम श्रमण भगवान् महावीर को यहीं से वन्दन-नमन कर लो।"
सुदर्शन बोला-“माता-पिता ! प्रभु महावीर जब स्वयं पधारे हैं। तो यह कैसे उचित होगा, मैं यहीं, से उनको वन्दन-नमन कर लूं। मैं वहीं, जहाँ वे विराजित है उपस्थित होकर वन्दना, नमस्कार एवं पर्युपासना करना चाहता हूँ। आप स्वीकृति प्रदान करें।"
मनुज्ञा : स्वीकृति
माता-पिता ने सुदर्शन को अनेक युक्तियों द्वारा समझाने का प्रयत्न किया, मौत के खतरे से उसे बार-बार आगाह कराया, किन्तु, वे किसी भी तरह सुदर्शन को घर से ही भगवान् को वन्दन-नमन कर परितोष मानने में सहमत नहीं कर सके। उसकी असीम उत्कण्ठा एवं उत्सुकता देखते वे अन्ततः निषेध नहीं कर सके। मन से न चाहते हुए भी उन्होंने उसे स्वीकृति दी, कहा-"जिससे तुम्हें सुख हो-आत्मपरितोष हो, वैसा करो।"
माता-पिता की अनुज्ञा प्राप्त कर सुदर्शन बहुत प्रसन्न हुआ। उसने स्नान किया,
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