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________________ तत्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग–अर्जुन मालाकार : अंगुलिमाल ४१५ भीषण प्रहारों द्वारा उन्हें बात की बात में मौत के घाट उतार दिया। फिर अपनी पत्नी बन्धुमती की ओर मुड़ा और उसकी भत्सना करते हुए बोला-"अपना शील गँवाने से पूर्व तने अपने आपको मार क्यों नहीं डाला, जो तुझसे शक्य था। पापिनी ! तु भी मरने के लिए तैयार हो जा।" भय से थर-थर कांपती और चीखती बन्धुमती को उसने एक ही बार में ढेर कर दिया। प्रतिशोध : प्रतिदिन सात प्राणियों की हिंसा का संकल्प अर्जुन मालाकार का प्रतिशोध कर एवं घोर हिंसा के रूप में परिवर्तित हो गया। उसने निश्चय किया, नृशंसतापूर्ण संकल्प किया, मैं हर रोज छ: पुरुषों तथा एक स्त्री की हत्या करता जाऊंगा, तभी मेरे जी में जी आयेगा। तदनुसार वह राजगृह नगर की बाहरी सीमा के इर्द-गिर्द घूमता रहता, क्रूरता-पूर्वक सात प्राणियों की हत्या करता रहता। वैसा कर वह परितुष्ट होता। भयका साम्राज्य उस समय राजगृह नगर की सड़कों, गलियों, चौराहों, तिराहों, चौकों, बाजारों तथा मोहल्लों में सर्वत्र लोग परस्पर यही चर्चा करते-"देवानुप्रियो ! नगर में बड़ी दुःखद स्थिति चल रही है । अर्जुन मालाकार यक्षाविष्ट है; अतएव वह अतुलित बलयुक्त है। वह प्रतिदिन राजगृह नगर के बाहर छः पुरुषों तथा तथा एक स्त्री की निर्दयता-पूर्वक हत्या कर रहा है। सभी किंकर्तव्यविमूढ़ हैं।" देवावेश के कारण अर्जुन मालाकार अजेय था। कौन उसका सामना करता। मगधराज श्रेणिक भी घबरा गया था। उसने सारे नगर में डोंडी पिटवा दी कि कोई भी स्त्रीपुरुष लकड़ी लाने, घास लाने, पानी लाने, फूल लाने, आदि हेतु नगर से बाहर न जाए । जब राजा ही यों भयभीत हो तो औरों की तो बिसात ही क्या है। मानो सर्वत्र भय का साम्राज्य छा गया। भेष्ठिपुत्र सुदर्शन राजगृह नगर में सुदर्शन नामक एक वैभवशाली श्रेष्ठिपुत्र निवास करता था। धन, सम्पत्ति, साधन, उपकरण, सेवक परिचायक आदि सब प्रकार की सुख-सुविधाओं से वह युक्त था। उसकी रग-रग में, अस्थियों के कण-कण में धर्म के प्रति अविचल निष्ठा थी। वह निर्ग्रन्थ-प्रवचन को यथार्थ, परमार्थ, परम सत्य और परम कल्याणकारी मानता था। वह जीव-अजीव, आस्रव-सवर-निर्जरा, पुण्य-पाप, बन्ध तथा मोक्ष-नव तत्त्व का वेत्ता था । वह श्रमणोपासक था। शीलव्रत, गुणव्रत, त्याग, प्रत्याख्यान आदि में उसकी हार्दिक अभिरुचि थी। उस ओर वह सतत् सक्रिय था। श्रमण-निर्ग्रन्थों को शुद्ध अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोञ्छन, रजोहरण, पीठ, झलक, शय्या, संस्तारक औषध, भेषज, आदि निरवद्य पदार्थों का दान देने में सदा उत्सुक एवं उत्कण्ठित रहता था । ऐसा कर वह अपने को बड़ा लाभान्वित मानता था। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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