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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
वैसे ही दिशापति — जिसका चारों दिशाओं में राज्य था, महाराज एसुकारी अपने राष्ट्र राज्य का परित्याग कर - राज्य के साथ जुड़े आसक्ति के बन्धन को तोड़कर प्रव्रज्या के पथ पर चल पड़ा । ""
नगर में जो लोग बचे थे, वे एक दिन एकत्र हुए। राज-द्वार पर पहुँचे । महारानी को सूचना करवाई, राज भवन में प्रविष्ट हुए । महारानी को प्रणाम किया और बोले" महाराज की प्रव्रज्या रुचिकर लगी- प्रिय लगी । परम पराक्रमशाली महाराज राज्य का परित्याग कर चले गये । महारानी ! अब आप हमारी वैसे ही राजा - राज्यकर्त्रीशासिका बनें। हमारे द्वारा--प्रजाजन द्वारा संगोषित सुरक्षित रहते हुए राज्य शासन करें - राज्य का संचालन करें । २
महारानी द्वारा अभिनिष्क्रमण
'
महारानी ने नागरिकों से कहा- "महाराज को प्रव्रज्या रुचिकर लगी, परम पराक्रमशील महाराज राज्य का परित्याग कर चले गये । मैं भी मन को विमुग्ध करने वाले काम-भोगों का परित्याग कर एकाकिनी विचरण करूंगी - धार्मिक जीवन में गतिशील बनूंगी। जिस प्रकार महाराज ने सुखों का परिवर्जन कर प्रव्रज्या का मार्ग अपनाया, मैं भी वैसा ही करूंगी - प्रव्रजित होऊंगी।
"समय व्यतीत होता जा रहा हैं, रातें सत्वर भागी जा रही हैं। आयु निरन्तर क्षीण होती जा रही है । यह सब देखते मैं मनोस काम-भोगों का - सांसारिक सुखों का परिवर्जन कर, समग्र आसक्तियों का उल्लंघन कर शान्त भाव से लोक में एकाकिनी विचरण करूंगीप्रव्रजितहूंगी। 3
महारानी ने लोगों को इस प्रकार उत्प्रेरित किया, धर्म का उपदेश दिया । फिर उसने मन्त्रियों की पत्नियों को बुलवाया, स्थिति से अवगत कराया और पूछा - "तुम लोगों का कैसा विचार है ? तुम क्या करोगी ? " अमात्यों की पत्नियों ने रानी से प्रतिप्रश्न किया "आयें ! आप क्या करेंगी ? "
१. इदं
वत्वा
महाराज,
दिसम्पति ।
पब्बजि,
एकारी रट्ठ हित्वान
बंधन ॥२०॥
नागो छत्वा व २. राजा च पब्बज्जं अरोचयित्थ, रठ्ठं पहाय नरविरियसेट्ठी । तुवम्पि नो होहि यथेव राजा, अम्हेहि गुत्ता अनुसास रज्जं ॥ २१ ॥ ३. राजा च पब्बज्जं अरोचयित्थ,
रट्ठ पहाय नरविरिय सेट्ठी । अहं पि एका चरिस्सामि लोके, हित्वान कामानि मनोरमानि ||२२|
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( शेष पृष्ठ ४० ६ पर )
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